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शुक्रवार, 8 मार्च 2013

किसान कीटनाशकों की खरीद और उनके सुरक्षित इस्‍तेमाल के लिए क्‍या करें और क्‍या न करें।


क्‍या करें
क्‍या न करें
  • कीटनाशक और जैव कीटनाशक सिर्फ पंजीकृत कीटनाशक डीलर से ही खरीदें जिसके पास वैध लाइसेंस हो।
  • एक विशिष्‍ट क्षेत्र में एक बार के छिड़काव के लिए जितनी आवश्‍यकता हो, उतना ही कीटनाशक खरीदें।
  • कीटनाशकों के कंटेनर या पैकेट पर मान्‍यता प्राप्‍त लेबल देखें।
  • लेबल पर बैच संख्‍या, पंजीकरण संख्‍या, मैन्‍युफैक्‍चर और एक्‍सपाइरी तिथि देखें।
  • कंटेनर में अच्‍छी तरह से पैक किए हुए कीटनाशक ही खरीदें।
  • फुटपाथ के डीलरों या ऐसे डीलर जिनके पास लाइसेंस नहीं हो, उनसे कीटनाशक न खरीदें।
  • एक साथ अधिक मात्रा में कीटनाशक न खरीदें।
  • कंटेनर पर पंजीकृत लेबल न होने पर कीटनाशक न खरीदें।
  • कभी भी कीटनाशक की एक्‍सपाइरी तिथि खत्‍म होने के बाद उसे न खरीदें।
  • कीटनाशकों के ऐसे कंटेनर जो लीक कर रहे हों या खुले हों या फिर जिन पर सील न हो, उन्‍हें न खरीदें।
संग्रहण के दौरान
क्‍या करें
क्‍या न करें
  • कीटनाशकों का संग्रहण घर से दूर करना चाहिए।
  • कीटनाशकों को उन्‍हीं के कंटेनर में रहने दें।
  • कीटनाशकों/खरपतवारनाशक को अलग-अलग संग्रहित किया जाना चाहिए।
  • जिस क्षेत्र में कीटनाशकों को संग्रहित किया गया हो, उस स्‍थान पर चेतावनी के संकेत दिए जाने चाहिए।
  • कीटनाशकों का संग्रहण ऐसे स्‍थान पर किया जाना चाहिए जो बच्‍चों और पशुओं की पहुंच से दूर हो।
  • संग्रहण के स्‍थान का सीधी धूप और बारिश से बचाव किया जाना चाहिए।
  • कभी भी कीटनाशकों का संग्रहण घर के आंगन में न करें।
  • कीटनाशकों को उनके कंटेनरों से निकाल कर कभी भी दूसरे कंटेनरों में न रखें।
  • कीटनाशकों और खरपवारनाशक का संग्रहण एक साथ नहीं किया जाना चाहिए।
  • बच्‍चों को संग्रहण के स्‍थान में प्रवेश करने की इजाजत न दें।
  • कीटनाशकों को धूप और बारिश में नहीं निकाला जाना चाहिए।
प्रबंधन के दौरान
क्‍या करें
क्‍या न करें
  • परिवहन के दौरान कीटनाशकों को अलग-अलग रखें।
  • इस्‍तेमाल वाले स्‍थान पर अधिक मात्रा में कीटनाशक पहुंचाने के लिए अत्‍यधिक सावधानी बरतनी चाहिए।
  • कभी भी कीटनाशकों को खाद्य पदार्थों/चारे/या अन्‍य खाद्य वस्‍तुओं के साथ न ले जाएं।
  • कभी भी अधिक मात्रा में कीटनाशक को अपने सिर, कंधे या पीठ पर न ले जाएं।
छिड़काव के लिए घोल तैयार करते समय
क्‍या करें
क्‍या न करें
  • हमेशा साफ पानी का ही इस्‍तेमाल करें।
  • दस्‍ताने, मास्‍क, टोपी, एप्रॉन, पूरी पैंट आदि सुरक्षात्‍मक कपड़ों का इस्‍तेमाल अपने शरीर को कवर करने के लिए करें।
  • छिड़काव के घोल से बचने के लिए हमेशा अपनी नाक, आंख, कान और हाथों का बचाव करें। ,
  • इस्‍तेमाल करने से पहले कीटनाशक के कंटेनर पर लिखे निर्देशों को सावधानीपूर्वक पढ़ लें।
  • आवश्‍यकता के हिसाब से छिड़काव करने की सामग्री को तैयार करें।
  • दानेदार कीटनाशक का उसी रूप में इस्‍तेमाल किया जाना चाहिए।
  • स्‍प्रे टैंक को भरते समय छिड़काव के लिए बनाए गए कीटनाशक के घोल को गिरने से बचाएं।
  • हमेशा कीटनाशकों का इस्‍तेमाल बताई गई मात्रा में ही करें।
  • ऐसी कोई भी गतिविधियां नहीं करनी चाहिए, जो आपके स्‍वास्‍थ्‍य को प्रभावित कर सकती हों।
  • कीचड़ वाले या गंदे पानी का इस्‍तेमाल कभी न करें।
  • सुरक्षात्‍मक कपड़ों के बिना कभी भी छिड़काव का घोल तैयार न करें।
  • कीटनाशक/उसके घोल को शरीर के किसी भी भाग पर नहीं गिरने देना चाहिए।
  • इस्‍तेमाल के लिए कंटेनर के लेबल पर निर्देशों को पढ़ने की कभी भी अनदेखी न करें।
  • कीटनाशक के घोल को तैयार करने के बाद कभी भी 24 घंटे पश्‍चात इस्‍तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
  • दानों का इस्‍तेमाल पानी के साथ नहीं करना चाहिए।
  • छिड़काव के टैंक को सूंघें नहीं।
  • कीटनाशकों की अत्‍यधिक मात्रा इस्‍तेमाल नहीं करनी चाहिए। यह पौधे के स्‍वास्‍थ्‍य और पर्यावरण को प्रभावित कर सकता है।
  • कीटनाशकों के छिड़काव के दौरान कुछ भी खाना, पीना, धूम्रपान या कुछ भी चबाना नहीं चाहिए।
उपकरणों का चयन
क्‍या करें
क्‍या न करें
  • सही प्रकार के उपकरणों का चयन करें।
  • सही आकार की नलिकाओं का चयन करें।
  • खरपतवारनाशक और कीटनाशक के छिड़काव के लिए अलग-अलग स्‍प्रे उपकरण का इस्‍तेमाल करें।

  • लीक कर रहे या खराब उपकरण का इस्‍तेमाल न करें।
  • खराब/बताई गई के अलावा अन्‍य किसी नलिका का इस्‍तेमाल न करें। बंद नालिका को अपने मुंह से साफ न करें, बल्कि दांत साफ करने वाले ब्रश का इस्‍तेमाल करें।
  • खराब और जिन्‍हें प्रयोग न करने के सलाह न दी गई हो उन नॉजलों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। नॉजल में मुंह से हवा नहीं डालें और न ही हवा से फूंक न मारें। उसकी सफाई के लिए स्‍प्रेअर वाले टूथब्रश का प्रयोग करें।
  • खरपतवारनाशक या कीटनाशक दोनों के लिए कभी भी एक ही स्‍प्रे उपकरण का इस्‍तेमाल न करें।
छिड़काव करते समय
क्‍या करें
क्‍या न करें
  • केवल बताई गई मात्रा और पानी का ही इस्‍तेमाल करें।
  • ठंडे और सही मौसम वाले दिन ही छिड़काव किया जाना चाहिए।
  • सामान्‍यत: छिड़काव धूप वाले दिन में किया जाना चाहिए।
  • हरेक छिड़काव के लिए बताए गए स्‍प्रे उपकरण का इस्‍तेमाल ही करें।
  • छिड़काव हवा की दिशा में करना चाहिए।
  • छिड़काव के बाद स्‍प्रे उपकरण और बाल्टियों को डिटर्जेंट/साबुन का इस्‍तेमाल कर साफ पानी से धोया जाना चाहिए।
  • छिड़काव के तुरंत बाद उस स्‍थान पर पशुओं/मजदूरों को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।

  • बताई गई मात्रा से अधिक कीटनाशक का उपयोग न करें।
  • छिड़काव तेज धूप वाले दिन या तेज हवा में नहीं करना चाहिए।
  • बारिश से तुरंत पहले और बारिश के तुरंत बाद छिड़काव नहीं किया जाना चाहिए।
  • बैटरी से संचालित यूएलवी स्‍प्रे उपकरण के साथ छिड़काव नहीं करना चाहिए।
  • इमल्सिफ़ाएबल कॉन्‍संट्रेट फार्म्‍यूलेशंस को बैटरी से चलने वाले यूएलवी स्‍प्रेअर से नहीं छिड़का जाना चाहिए।
  • हवा की विपरीत दिशा में छिड़काव नहीं करना चाहिए।
  • कीटनाशक को मिलाने के लिए इस्‍तेमाल में लाई बाल्टियों और कंटेनरों को धोने के बाद भी घरेलू इस्‍तेमाल में नहीं लाया जाना चाहिए।
  • सुरक्षात्‍मक कपड़ों के बिना घोल के छिड़काव के तुरंत बाद खेत में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
छिड़काव के बाद
क्‍या करें
क्‍या न करें
  • बची हुई स्‍प्रे सामग्री को बंजर भूमि जैसे स्‍थान पर फेंक देना चाहिए।
  • इस्‍तेमाल में लाए गए कंटेनरों या खाली कंटेनरों को नष्‍ट कर देना चाहिए और उन्‍हें जल संसाधनों से दूर मिट्टी में गाड़ देना चाहिए।
  • कुछ भी खाने या धू्म्रपान करने से पहले हाथों और चेहरे को साबुन से अच्‍छी तरह से धो लेना चाहिए।
  • जहर के लक्षण दिखने पर सर्वप्रथम प्राथमिक उपचार करें और मरीज को डॉक्‍टर को दिखाएं। डॉक्‍टर को खाली कंटेनर भी दिखाएं।
  • बची हुई स्‍प्रे सामग्री को नाली या पास के तालाब या पानी में नहीं बहाना चाहिए।
  • कीटनाशकों के खाली कंटेनर को अन्‍य सामग्री के संग्रहण के लिए इस्‍तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
  • कपड़े धोने या नहा लेने से पहले कभी भी खाना/धूम्रपान नहीं करना चाहिए।
  • डॉक्‍टर को ज़हर के लक्षण न बताने का खतरा नहीं उठाना चाहिए क्योंकि यह मरीज के जीवन के लिए खतरनाक हो सकता है।

धान की उन्‍नत प्रजातियॉं

Varieties (कि‍स्‍में) Production पैदावार कुन्‍तल/हैक्‍टेयर Characteristics (वि‍शेषताऐं)
जया 50-60 130 से 140 दि‍न में पकने वाली धान की यह कि‍स्‍म उत्‍तर प्रदेश हरि‍याणा कर्नाटक आंध्रप्रदेश व पंजाब के लि‍ए बहुत अच्‍छी है
पन्‍त धान 10 55-65 यह कि‍स्‍म 110 से 115 दि‍न में पक जाती है। यह कि‍स्‍म बुन्‍देलखण्‍ड को छोडकर उत्‍तर प्रदेश सभी मैदानी क्षेत्रों के लि‍ए उपयुक्‍त है
पन्‍त धान 12 55-60 यह कि‍स्‍म 115 से 120 दि‍न में पक जाती है। यह कि‍स्‍म बुन्‍देलखण्‍ड को छोडकर उत्‍तर प्रदेश सभी मैदानी क्षेत्रों के लि‍ए उपयुक्‍त है
पूसा सुगंध 2
(Pusa Sugandh-2)
45-50 A semi-dwarf, high yielding variety possessing typical basmati quality. Extra-long grains with strong aroma and almost twice elongation on cooking. Soft texture, good mouth feel and appealing taste. Matures in 120 days (Seed to seed). suitable for cultivation in Punjab, Haryana, Delhi, Western Uttar Pradesh and Uttaranchal under multiple cropping system.
पूसा बासमती 1
(Pusa Basmati-1)
45 A semi-dwarf, high yielding basmati rice variety suitable for cultivation in the Basmati growing areas of north western India. Excellent grain and cooking quality, Soft texture, pleasent aroma. Matures in 135 days (Seed to seed) with potential yield of 60-70 q/ha and average yield 45 q/ha. Contributes about 50% of the total basmati export from India. Well suited for rice wheat croping system in North India.
उन्‍नत पूसा बासमती 1
(Unnatt Pusa Basmati-1)(Pusa-1460)
45-50 पूसा बासमती 1 को झुलसा रोग कं प्रती प्रतीरोधी बनाने के लि‍ए इस प्रजाति‍ का सुधार चि‍न्‍हक आधारि‍त वि‍धि से कि‍या गया है। यह कि‍स्‍म पककर तैयार होने में 145 दि‍न का समय लेती है। कि‍सानो के यहां कि‍ए गए प्रदर्शन में उन्‍नत पूसा बासमती 1 की उपज 22-26 कु./एकड पाई गई है।
पूसा बासमती 6
(pusa-1401)
50-55 यह उपज क्षमता, सस्‍य लक्षणों और पकने के गुणो में पूसा 1121 का एक उन्‍नत प्रारूप है। यह प्रजाति‍ अगस्‍त 2008 में वि‍मोचि‍त की गई। पूसा बासमती 1121 की तुलना में इसकी ऊचाई कम होती है जि‍सके कारण यह गि‍रती नही है। इसके दाने समान आकर के होते हैं। यह अत्‍यंधि‍क सुगंधि‍त ओर 4 प्रति‍शत से कम दुधि‍या दाने वाली कि‍स्‍म है इसकी कुल अवधि‍ 150 दि‍न है तथा औसत उपज 20-25 कु./एकड है।
यामि‍नी
(C.S.R.-30)
40-45 यह बासमती धान की एक अच्‍छी कि‍स्‍म है इसके चावल पतले, लम्‍बे, मुलायम एचं खुसबूदार होते हैं। इसका औसत कद 150/160 से.मी. होता है तथा पकने के लि‍ए 155 दि‍न का समय लेती है। इसकी औसत उपज 13 कु/एकड है। यह प्रजाति‍ क्षारि‍य मृदा में खेती के लि‍ए अच्‍छी पाई गई है।
पूसा सुगंध 2
(Pusa Sugandh-2)
40-50 A semi-dwarf, high yielding variety possessing typical basmati quality. Extra-long grains with strong aroma and almost twice elongation on cooking. Soft texture, good mouth feel and appealing taste. Matures in 120 days (Seed to seed). suitable for cultivation in Punjab, Haryana, Delhi, Western Uttar Pradesh and Uttaranchal under multiple cropping system.
पूसा सुगंध 3
(Pusa Sugandh-3)
40-45 A semi-dwarf, high yielding variety possessing extra-long slendergrains with almost twice elongation on cooking, pleasent aroma and taste. Matures in 125 days (Seed to seed) with average yield of 60 q/ha. Suitable for cultivation in Punjab, Haryana, Delhi, Western Uttar Pradesh and Uttaranchal under multiple cropping system.
पूसा सुगंध 5
(Pusa Sugandh-5)
(Pusa 2511)
65-70 Extra-long grains with strong aroma. Matures in 125-130 days (Seed to seed) with average yield of 65-70 q/ha. suitable for cultivation in Punjab, Haryana, Delhi, Western Uttar Pradesh and J & K. This variety is suitable for irrigated transplanted condition under rice-wheat croping system and has tolerance to shattering. It is resistant to gallumidge, brown spot and moderately resistant to leaf folder and blast
पूसा 4
(Pusa-4)
60 High yielding variety suitable for Kerala, Karnataka and most popular in Delhi, Haryana and Punjab. Matures in 140-145 days (Seed to seed)with potential yield 60-70 q/ha. High yielding with strong stem, has tolerance to shattering, suitable for machine harvesting.
पूसा 1121
(Pusa 1121)
40 Suitable for whole Basmati growing region of India. Plant height 110-120 cm. Total duration of crop from seed to seed 140-145 days. Matures a fort-night earlier than Taraori Basmati. Grain longer and better in cooking compared to Taraori Basmati. Average grain yield 40 q/ha. Low input, high yield and better for export.
पूसा आर.एच. 10
(Pusa R.H.10)
65 Worlds first superfine grain aromatic rice hybrid possessing typical Basmati quality traits. Strongly scanted, long slender grain with almost twice elongation on cooking. Matures in 110-115 days (Seed to seed) with potential yield of 65 q/ha. Saving in irrigation, very high per day productivity and overall profitability. Tolerance to major insect pest and diseases. Suitable for cultivation in the North Indian states Punjab, Haryana, Delhi, Western Uttar Pradesh and Uttaranchal.
जल्‍दी धान-13
(Jaldi Dhan-13)
60 Suitable for drought pron area of west Bengal. It is bold seeded early maturing variety which matures in 90-95 days.
पीएनआर 546
(PNR-546)
66 Suitable for rainfed areas of West Bengal. It is an aromatic fine grain rice variety which matures in about 110 days.

ग्रीनहाउस मे बीज रहित खीरे की वर्ष भर उत्पादन प्रौद्योगिकी


जलवायु
साधारणत: खीरा उष्ण मौसम की फसल है। वृध्दि की अवस्था के समय पाले से इसको अत्यधिक हानि होती है। फलों की उचित वृध्दि व विकास के लिए 15-20 डिग्री से.ग्रे. का तापक्रम उचित होता है। खरबूजा व तरबूज की अपेक्षा खीरे को कम तापक्रम की आवष्यकता पड़ती है। आजकल विदेशों मे उपलब्ध किस्मों को सर्दी के मौसम मे भी ग्रीनहाउस या पोलीहाउस मे सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। इस प्रकार के ग्रीनहाउस या पॉलीहाउस को ठण्डा या गर्म करने के आवष्यकता नही होती है तथा इस प्रकार के प्राकृतिक वायु संवाहित ग्रीनहाउस या पॉलीहाउस में एक वर्ष मे खीरे की तीन फसले पैदा करके अत्यधिक लाभ लिया जा सकता है। यह तकनीकी बड़ी व मध्यम जनसंख्या वाले षहरो के चारों ओर खेती करने वाले कृषको के लिये बहुत लाभकारी व उपयोगी प्रमाणित हो सकती है।
पौध तैयार करना
नियंत्रित स्थिति मे ग्रीनहाउस नर्सरी में खीरे की वर्ष भर पौध तैयार की जा सकती है। सर्दी के मौसम मे खीरे की पौध तैयार होने से 25-28 दिन तक का समय लेती है। लेकिन गर्मी के मौसम में इस विधि से पौध 15-18 दिन में रोपाई योग्य हो जाती है। सर्दी में बीजों को ट्रे में बोने के बाद अंकुरण हेतु 24 से 25 डिग्री से. ग्रे. तामक्रम पर रखा जाता है। अंकुरण के तुरन्त बाद उनको नर्सरी ग्रीनहाउस या पॉलीहाउस मे फैला दिया जाना चाहिये। इस प्रकार पौध में जड़ों का विकास बहुत अच्छा होता हैं तथा जडें माध्यम के चारो और लिपट जाती है। इससे उन्हें ट्रेज से निकालने पर जड़ों को कोई नुकसान भी नही होता है। क्योकि बेल वाली सब्जियाँ जड़ों में कोई नुकसान सहन नही कर सकती है। अत: उनकी पौध तैयार करने का यह एक मात्र उपयुक्त उपाय व साधन है।
भूमि व उसकी तैयारी
ग्रीनहाउस के अन्दर पौध की रोपाई से एक माह पहले खेत की गहरी जुताई करके भूमि को अच्छी प्रकार तैयार करना चाहिए तथा भूमि से विभिन्न प्रकार के रोगाणुओं व कीटाणुओं के निदान के लिए मिट्टी को फार्मल्डीहाइड के घोल से उपचारित करना चाहिए। ग्रीनहाउस की मिट्टी को पारदर्शी पॉलीथीन (30 से 40 माइक्रान मोटाई) से लगभग 15 दिन तक ढककर खुली धूप आने देना चाहिए जिससे पोलीथीन चादर के अन्दर का तापक्रम बढ़े और गैस सरलता से कवक आदि को मार सके। इस प्रकार उपचारित मिट्टी को लगभग एक सप्ताह के लिए खुला छोड़ देना चाहिए तथा उसको उलटते-पलटते रहना चाहिए जिससे उसमें उपस्थित दवा (गैस) का अंश मिट्टी से निकल जाये तथा जब पौध की रोपाई की जायें तो दवा का विपरीत प्रभाव पौधे की वृध्दि व विकास पर न पडे।
रोपाई व उसका समय
ठीक प्रकार से बनी हुई क्यारियो पर ड्रिप पाइप (Drip lines) डालकर पौध की रोपाई करना चाहिए। रोपाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक पौध को उचित दूरी पर एवं ड्रिप लाइन में उपलब्ध छिद्र के पास ही पौधों को रोपा जाये ताकि छिद्र से निकला हुआ जल व जल मिश्रित उर्वरक पौधों की जड़ों को पूर्ण रूप से तथा आसानी से उपलब्ध हो सके। खीरा विभिन्न मौसम के लिए उपलब्ध किस्मों के अनुसार पूरे वर्ष उगाया जा सकता है। दो उठी क्यारियों के बीच से दूरी 1.5 से 1.6 मीटर होनी चाहिए तथा इसको एक ही कतार पर 30 से.मी. की दूरी पर रोपते है। जिससे 1000 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में 2200-2300 तक पौधे लगाये जा सकते हैं।
 
किस्मों का चुनाव
साधारणतया ग्रीनहाउस में ऐसी किस्मों का चुनाव किया जाता है जो कि गाइनोसियस हो (बीज रहित) तथा फल कोमल एवं मुलायम एवं उपज अच्छी हो। इस प्रकार की किस्मों में बगैर परागण के सीधा फल का विकास होता हैं। इन किस्मों का विकास मुख्यत: यूरोपीय देशों व इजराइल में किया गया है। कई बड़ी-बडी बीज कम्पनियां भी हमारे देश में इस प्रकार की किस्मों को उपलब्ध करा रही है। यूरोप में विकसित बीज रहित किस्मों में सेरिंग व हसन गर्मी के लिये तथा मुहासन व दीनार सर्दी के मौसम के लिए उत्तम है। देश में उपलब्ध ऐसी किस्मों में नन-9729, नन-3019, यियान आदि प्रमुख है। ग्रीनहाउस में मोनोसियस किस्मों (नर व मादा फूल एक ही पौधों पर अलग-अलग शाखाओं पर बनते है) को भी उगाया जा सकता है। लेकिन इसके उगाने के लिए परागण कार्य के लिये शहद मक्खियों की आवश्‍यकता होती हैं। तथा इसमें कटाई-छंटाई का कार्य भी अलग ढंग से किया जाता है। इसमें प्रमुख किस्में जापनीज लांग ग्रीन, पूसा संयोंग, प्वाइनसेट आदि हैं।
पौधों की छँटाई व सहारा देना
खीरे के पौधो को एक प्लास्टिक की रस्सी के सहारे लपेटकर ऊपर की ओर चढ़ाया जाता है। इस प्रक्रिया से प्लास्टिक की रस्सियों को एक सिरे की पौधों के आधार से तथा दूसरे सिरे को ग्रीनहाउस में क्यारियों के ऊपर 9-10 फीट ऊँचाई पर बंधे लोहे के तारों पर बाँध देते हैं। तथा अन्त में जब पौधा उस तार के बराबर जिस तार पर रस्सी का दूसरा सिरा बँधा होता है, तो पौधो को नीचे की ओर चलने दिया जाता हैं। तथा साथ-साथ विभिन्न दिशाओं से निकली शाखाओं की निरन्तर काट-छांट करनी चाहिये। मोनोशियस किस्मों में मादा फूल मुख्य शाखा से निकली द्वितीय शाखाओं पर ही आते है अत: उनकी कटाई नही की जाती है अन्यथा उपज मे भारी कमी होती हैं। कटाई-छँटाई करते समय इस बात का अवश्‍य ध्यान रखे कि हमने किस किस्म को उगाया है।



पानी व उर्वरक देना
पौधों की उर्वरक व जल की मात्रा मौसम एवं जलवायु पर निर्भर करती है। आमतौर पर पानी 2.0 से 2.5 धन मीटर प्रति 1000 वर्ग मीटर के हिसाब से गर्मी में 2 से 3 दिन के अन्तराल तथा सर्दी में 6-8 दिन के अन्तराल पर दिया जाता है। गर्मी में फसल में जल की मात्रा फल आने की अवस्था मे 3.0 से 4.0 धन मीटर तक बढ़ा दी जाती है। तथा उर्वरक पानी के साथ मिलाकर ड्रिप सिंचाई प्रणाली द्वारा दिये जाते है। नत्रजन 80 से 100 पी.पी.एम., फास्फोरस 60 से 70 पी.पी.एम तथा पोटाश 100 से 120 पी.पी.एम. तक दिये जाते है। इनकी मात्रा को फसल की अवस्था, भूमि के प्रकार व मौसम के अनुसार घटाया व बढ़ाया जा सकता है।
उपज व तुड़ाई
इस प्रकार 1000 वर्ग मीटर क्षेत्र में खीरे की बीज रहित किस्मों की तीन फसल लेकर 120 से 150 कुन्तल उच्च गुणवत्ता वाले फलों की उपज ली जा सकती है। ग्रीष्मकालीन व वर्षाकालीन फसल की अवधि 2.5 से 3.0 माह तक होती है जबकि सर्दी की फसल की अवधि 3.0-3.5 माह की होती है। इस प्रकार के खीरे को 8 से 10 से.मी. लम्बाई व कम मोटाई मे तोड़कर ग्रेडिंग करके उच्च बाजार में अधिक भाव पर बेचा जा सकता है। इस प्रकार की किस्मों को बहुत कम लागत वाले ग्रीनहाउस में भी सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। सर्दी के मौसम मे ग्रीनहाउस या अन्य संरक्षित संरचना को चारों ओर से पर्दे बन्द करके अन्दर के तापमान को ऊँचा रखा जाता है। फिर भी कम तापमान के कारण सर्दी फसल की अवधि बढ़कर लगभग 4 से 4.5 महीने तक हो जाती है।  

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

हरी खाद - मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढाने का एक सस्ता विकल्प


हरी खाद - मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढाने का एक सस्ता विकल्प

    मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाये रखने के लिए हरी खाद एक सस्ता विकल्प है । सही समय पर फलीदार पौधे की खड़ी फसल को मिट्टी में ट्रेक्टर से हल चला कर दबा देने से जो खाद बनती है उसको हरी खाद कहते हैं ।
  

आदर्श हरी खाद में निम्नलिखित गुण होने चाहिए

•           उगाने का न्यूनतम खर्च
•           न्यूनतम सिंचाई आवश्यकता
•           कम से कम पादम संरक्षण
•           कम समय में अधिक मात्रा में हरी खाद प्रदान कर सक
•           विपरीत परिस्थितियों  में भी उगने की क्षमता हो
•           जो खरपतवारों को दबाते हुए जल्दी बढ़त प्राप्त करे
•           जो उपलब्ध वातावरण का प्रयोग करते हुए अधिकतम उपज दे ।

हरी खाद बनाने के लिये अनुकूल फसले :

  • ढेंचा, लोबिया, उरद, मूंग, ग्वार बरसीम, कुछ मुख्य फसले है जिसका प्रयोग हरी खाद बनाने में होता है ।  ढेंचा इनमें से अधिक आकांक्षित है ।
  •  ढैंचा की मुख्य किस्में सस्बेनीया ऐजिप्टिका, एस रोस्ट्रेटा तथा एस एक्वेलेटा अपने त्वरित खनिजकरण पैर्टन, उच्च नाइट्रोजन मात्रा तथा अल्प ब्रूछ अनुपात के कारण बाद में बोई गई मुख्य फसल की उत्पादकता पर उल्लेखनीय प्रभाव डालने में सक्षम है

हरी खाद के पौधो को मिट्टी में मिलाने की अवस्था

  • हरी खाद के लिये बोई गई फसल ५५ से ६० दिन बाद जोत कर मिट्टी में मिलाने के लिये तैयार हो जाती है ।
  • इस अवस्था पर पौधे की लम्बाई व हरी शुष्क सामग्री अधिकतम होती है ५५ स ६० दिन की फसल अवस्था पर तना नरम व नाजुक होता है जो आसानी से मिट्टी में कट कर मिल जाता है ।
  • इस अवस्था में कार्बन-नाईट्रोजन अनुपात कम होता है, पौधे रसीले व जैविक पदार्थ से भरे होते है इस अवस्था पर नाइट्रोजन की मात्रा की उपलब्धता बहुत अधिक होती है
  • जैसे जैसे हरी खाद के लिये लगाई गई फसल की अवस्था बढ़ती है कार्बन-नाइट्रोजन अनुपात बढ़ जाता है, जीवाणु हरी खाद के पौधो को गलाने सड़ाने के लिये मिट्टी की नाइट्रोजन इस्तेमाल करते हैं । जिससे मिट्टी में अस्थाई रूप से नाइट्रोजन की कमी हो जाती है ।

हरी खाद बनाने की विधि

• अप्रैल.मई माह में गेहूँ की कटाई के बाद जमीन की सिंचाई कर लें ।खेत में खड़े पानी में ५० कि० ग्रा० Áति है० की दर से ढेंचा का बीज छितरा लें
• जरूरत पढ़ने पर १० से १५ दिन में ढेंचा फसल की हल्की सिंचाई कर लें ।
• २० दिन की अवस्था पर २५ कि० Áति ह०की दर से यूरिया को खेत में छितराने से नोडयूल बनने में सहायता मिलती है ।
• ५५ से ६० दिन की अवस्था में हल चला कर हरी खाद को पुनरू खेत में मिला दिया जाता है ।इस तरह लगभग १०.१५ टन Áति है० की दर से हरी खाद उपलब्ध हो जाती है ।
• जिससे लगभग ६०.८० कि०ग्रा० नाइट्रोजन Áति है० प्राप्त होता है ।मिट्टी में ढेंचे के पौधो के गलने सड़ने से बैक्टीरिया द्वारा नियत सभी नाइट्रोजन जैविक रूप में लम्बे समय के लिए कार्बन के साथ मिट्टी को वापिस मिल जाते हैं ।

हरी खाद के लाभ

  1. हरी खाद को मिट्टी में मिलाने से मिट्टी की भौतिक शारीरिक स्थिति में सुधार होता है ।
  2. हरी खाद से मृदा उर्वरता की भरपाई होती है
  3. न्यूट्रीयन् टअस की उपलब्धता को बढ़ाता है
  4. सूक्ष्म जीवाणुओं की गतिविधियों को बढ़ाता है
  5. मिट्टी की संरचना में सुधार होने के कारण फसल की जड़ों का फैलाव अच्छा होता है ।
  6. हरी खाद के लिए उपयोग किये गये फलीदार पौधे वातावरण से नाइट्रोजन व्यवस्थित करके नोडयूल्ज में जमा करते हैं जिससे भूमि की नाइट्रोजन शक्ति बढ़ती है ।
  7. हरी खाद के लिये उपयोग किये गये पौधो को जब जमीन में हल चला कर दबाया जाता है तो उनके गलने सड़ने से नोडयूल्ज में जमा की गई नाइट्रोजन जैविक रूप में मिट्टी में वापिस आ कर उसकी उर्वरक शक्ति को बढ़ाती है ।
  8. पौधो के मिट्टी में गलने सड़ने से मिट्टी की नमी को जल धारण की क्षमता में बढ़ोतरी होती है । हरी खाद के गलने सड़ने से कार्बनडाइआक्साइड गैस निकलती है जो कि मिट्टी से आवश्यक तत्व को मुक्त करवा कर मुख्य फसल के पौधो को आसानी से उपलब्ध करवाती है
 
हरी खाद के बिना बोई गई धान की फसल              हरी खाद दबाने के बाद बोई गई धान की फसल  
  1. हरी खाद दबाने के बाद बोई गई धान की फसल में ऐकिनोक्लोआ जातियों के खरपतवार न के बराबर होते है ज¨ हरी खाद के ऐलेलोकेमिकल प्रभाव को दर्शाते है ।

Soil Test report of concerned farmers are available please visit the link... select year 2012-13 and then District flowed by Block and panchayat and then enter 1st three number of farmer name and ENTER.... then find the name of farmer and click on ID and generate Soil health card... मृदा जांच प्रतिवेदन निचे दिए गये लिंक पर उपलब्ध है... लिंक पर जाएँ और वर्ष 2012-13 को सेलेक्ट करते हुए जिला , प्रखंड एवं पंचायत सेलेक्ट करे एवं किसान के नाम के पहले तिन अक्षर प्रविष्ट करे .... किसानो की सूचि में अपना नाम ढूंढने के बाद Soil testing ID पर क्लिक करें एवं इसके बाद अपना मृदा जांच पत्र डाउनलोड कर सकते है |






गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

शुष्क क्षैत्र में कददूवर्गीय सब्जियों का समेकित कीट प्रबन्धन


कददूवर्गीय सब्जियों को मानव आहार का एक अभिन्न भाग माना जाता है. एक आदमी को रोजाना 300 ग्राम सब्जियां खानी चाहिए परंतु भारत मे इसका 1/9 भाग ही मिल पाता है. भारत दुनिया में सब्जी उत्पादन मे दूसरा सबसे बड़ा देश है और चीन का पहला स्थान है. सब्जियां विटामिन और खनिज लवणों का समृद्ध स्रोत होते हैं. सब्जी उत्पादन में कीडों से बहुत नुकसान होता है. भारत मे कीडों, रोगों, सुत्रकृमियों एवं खरपतवारों से 30% तक नुकसान होता है. कददूवर्गीय सब्जियों में लगने वाले कीट निम्नलिखित है:
अ. मुख्य कीट1. फल मक्खी:
2. कद्दू का लाल कीड़ा:
3. हाडा बीटल:
4.पत्ती भेदक सुंडी:
ब. लघुपद कीट
1. सफेद मक्खी:
व्यस्क सफेद मक्खी: 
व्यस्क सफेद मक्खी
2. लीफ माइनर:
3. चेपा:
स. समेकित कीट प्रबन्धन:
समेकित कीट प्रबंधन (आई. पी. एम.) क्या है:
आई. पी. एम. के उद्देश्य:
1. फल को पैपर या प्लास्टिक से ढकना:
2. खेत की सफाई करना:
3. क्यू-आकर्षण ट्रैप:
4. जैविक नियंत्रण:
5. कीट प्रतिरोधक पौधे लगाना:
संकददूवर्गीय सब्जियांफल मक्खी प्रतिरोधी किस्में
1.करेलाआई एच आर-89 व आई एच आर-213
2.घीया (लौकी)एन बी-29, एन बी-22, एन बी-28
3.कददूआई एच आर-35, आई एच आर-40, आई एच आर 83
4.तोरई एन आर-2, एन आर-5, एन आर-7
5. टिण्डाअर्का टिण्डा
6. कद्दू अर्का सूर्यमुखी
6. रासायनिक नियंत्रण:
रासायनिक कीटनाशीरासायनिक कीटनाशी की मात्रा
डाइमीथोएट 30 ई सी1.5 से 2.0 मिली/ लीटर पानी
मैलाथियान 50 ई सी1.5 से 2.0 मिली/ लीटर पानी
स्पाईनोसेड 45 एस सी0.5 से 0.7 मिली/ लीटर पानी
इंडोक्सिकर्ब 14.5 एस सी0.5 से 0.7 मिली/ लीटर पानी
रासायनिक कीटनाशी रासायनिक कीटनाशी की मात्रा
प्रोफेनोफोस 50 ई सी1.5 से 2.0 मिली/ लीटर पानी
एसीफेट 75 एस पी1.5 से 2.0 मिली/ लीटर पानी
ईमीडाक्लोपरीड 17.8 एस एल 0.5 से 0.7 मिली/ लीटर पानी
एसीटमेपरीड 20 एस पी 0.5 से 0.7 मिली/ लीटर पानी
थायोमिथोक्ज़ाम 70 ड्ब्लू एस 0.5 से 0.7 मिली/ लीटर पानी

Dr. Shravan M Haldhar (Scientist), Dr.B.R.Choudhary (Scientist) & Sh. Suresh Kumar (Research Associate)
CIAH, Bikaner (ICAR), Rajasthan
Mobile: 09530218711
Email:haldhar80@gmail.com


वैज्ञानिक नाम: बैक्ट्रोसेरा (डैक्स) कुकुरबिटी
कुल: टैफरीटीडी
गण: डीपटैरा
पौषक पौधे: फल मक्खी का आक्रमण सभी कद्दू कुल के पौधो मे होता है जैसे लौकी, करेला, तोरई, कद्दू, ककडी, खरबूज, खीरा, टिंडा आदि.
आर्थिक क्षति एवं नुकसान: इस फल मक्खी के व्यस्क के पंख भूरे रंग के होते है. इस कीट का मैगट ही क्षति पहुंचाता है. इसका प्रकोप फरवरी से लेकर नवम्बर तक होता है. मादा फल मक्खी अपने अंडरोपक को कोमल फलों मे धॅसाकर गूदे मे अण्डे देती है. ग्रसित फल के छेद से लसदार हल्के भुरे रंग का द्रव निकलता है. अण्डे से मैगट निकलते है जोकि गूदे को खाकर उसमें स्पंज, जैसे बहुत से छेद कर देते है ओर फल सडनें लगता है.
 बैक्ट्रोसेरा (डैक्स) कुकुरबिटी  बैक्ट्रोसेरा (डैक्स) कुकुरबिटी
कददूवर्गीय फल मक्खी का व्यस्क | शंकु टिंडे मे फल मक्खी से नुकसान
फुट ककडी मे फल मक्खी से नुकसान | घीया (लौकी) मे फल मक्खी से नुकसान
तोरई(स्पोंजगार्ड) मे फल मक्खी से नुकसान | काचरी मे फल मक्खी से नुकसान
खरबूजें मे फल मक्खी से नुकसान | मतीरें मे फल मक्खी से नुकसान

वैज्ञानिक नाम: रैफिडोपालपा फोवीकोलीस
कुल: क्राइजोमेलिडी
गण: कोलियोपटेरा
इसकी भारत मे मुख्तया: तीन प्रजातियां पाई जाती है. इनमें से आर. फोवीकोलीस भारत के लगभग सभी राज्यों में पायी जाती है. आर. लैवीसी प्रजाति उत्तरी राज्यों में अधिक मात्रा में पाई जाती है. और दक्षिण भारत मे आर. सिंकटा अधिक होती है.
पौषक पौधे: इस लाल कीडे का आक्रमण सभी कद्दू कुल के पौधो मे होता है जैसे लौकी, करेला, तोरई, कद्दू, ककडी, खरबूज, खीरा, टिंडा आदि.
आर्थिक क्षति एवं नुकसान: इस कीड़े का व्यस्क एवं ग्रब दोनो नुकसान पहुचाते है. भृंग (व्यस्क) पत्तियों एवं फूलों को नुकसान पहुचाता है और ग्रब पौधे की जडों को खाता है. जो फल जमीन पर रखे होते है उनको इस ग्रब के द्वारा निचले भाग मे छिद्र करके काफी संख्या मे प्रवेश कर जाते है तथा अंदर से खोखला कर देते है.
 रैफिडोपालपा फोवीकोलीस
कद्दू का लाल कीड़ा ( रैफिडोपालपा फोवीकोलीस)

वैज्ञानिक नाम: हैंनोसेपीलेक्ना विजींटिओपंकटाटा
कुल: कोक्सीनेलीडी
गण: कोलियोपटेरा
पौषक पौधे: यह दक्षिण पूर्व एशिया के विभिन्न भागों में पाया जाता है. यह बैंगन का महत्वपूर्ण कीट माना जाता है, इससे क्षति करीब-करीब सभी सब्जियों मे होती है. जैसे बैंगन, आलु, टमाटर, लौकी, करेला, तोरई, कद्दू, ककडी, खरबूज, खीरा, टिंडा आदि.
आर्थिक क्षति एवं नुकसान: हाडा बीटल के व्यस्क एवं ग्रब दोनो पौधे को नुकसान पहुचाते है. यह एक विशेष तरीके से पत्तियों एवं फलों को कुरेदता है और धीरे धीरे पत्तियों एवं फलों को सुखा देता है.
हैंनोसेपीलेक्ना विजींटिओपंकटाटा हाडा बीटल
ग्रब से नुकसान                 |      हाडा बीटल से नुकसान

वैज्ञानिक नाम: डाईफेनिया इंडिका
कुल: पाईरेलिडी
गण: लेपिडोप्टेरा
पौषक पौधे: खीरा, लौकी, करेला, सेम, अरहर, तरबूज, खरबूज, टिंडा, ककड़ी, कद्दू, लोबिया आदि.
आर्थिक क्षति एवं नुकसान: इस कीट की सुंडी ही पौधे की पत्तियों को नुकसान करती हैं. अंडे सें निकलने के बाद सुंडी रेशमी धागे के साथ पत्तियों को रोल करती है और सिराओं के बीच से पत्ती को खाती है. इस कीट की सुंडी फूल एवं फलों को भी नुकसान पहुंचाती है. नुकसान किये हुये फल बाद में सड़ने लगते है.
डाईफेनिया इंडिका व्यस्क सुण्डी
सुण्डी से नुकसान          |               व्यस्क सुण्डी

वैज्ञानिक नाम: बैमेसीया टेबेसाई
कुल: एल्यूरोडिडी
गण: हेमिप्टेरा
पौषक पौधे: इस कीट के मुख्य पौषक पौधे कपास, तंबाकू, टमाटर और कददूवर्गीय सब्जियों आदि है.
आर्थिक क्षति एवं नुकसान: सफेद मक्खी की प्रकोप पत्तियों के निचली सतह पर सिराओं के बीच में होता है और यह पत्तिंयो से रस चूसती है. इस कीट का शुष्क मौसम के दौरान प्रकोप अधिक होता है और गतिविधि बारिश की शुरुआत के साथ घटती जाती है. इसके प्रभाव से पौधे की पत्तियां पीली पड जाती हैं, पत्ते सिकुड्ने और नीचे की ओर मुड जाते हैं. सफेद मक्खी वायरस रोग का संचारण करती है.
बैमेसीया टेबेसाई सफेद मक्खी
सफेद मक्खी के अण्‍डे                सफेद मक्खी के निम्‍फ

वैज्ञानिक नाम: लिरीयोमाइजा ट्राईफोलाइ
कुल: कुल: एग्रोमाइजीडी
गण: डिप्टेरा
पौषक पौधे: इस कीडे का आक्रमण सभी कद्दू कुल के पौधो मे होता है जैसे लौकी, करेला, तोरई, कद्दू, ककडी, खरबूजा, खीरा, टिंडा आदि.
आर्थिक क्षति एवं नुकसान: यह पत्तियों के ऊपरी भाग पर टेढे मेढे भूरे रंग की सुरंग बना देता है ओर इसका मेगट ही पत्तियों को नुकसान पहुचाता है.
लिरीयोमाइजा ट्राईफोलाइ लिरीयोमाइजा ट्राईफोलाइ (लीफ माइनर)
मेगट से नुकसान           |              व्यस्क लीफ माइनर

वैज्ञानिक नाम: एफीस गोसीपी
कुल: एफीडिडी
गण: हेमिप्टेरा
पौषक पौधे: इस कीट के मुख्य पौषक पौधे कपास, तंबाकू, टमाटर और कददूवर्गीय सब्जियां है.
आर्थिक क्षति एवं नुकसान: इसके निम्फ व व्यस्क दोनों पत्तियों को नुकसान पहुचाते है. ये छोटे आकार के काले एवं हरे रंग के होते हैं तथा कोमल पत्तियों, पुष्पकलिकों का रस चूसते हैं.
एफीस गोसीपी चेपा निम्फ व व्यस्क से नुकसान
व्यस्क चेपा              |                  निम्फ व व्यस्क से नुकसान

सब्जियों में आईपीएम का महत्व ओर बढ़ जाता है क्योंकि फल और सब्जी मनुष्य द्वारा खाई जाती है। जो कीटनाशक ज्यादा ज़हरीले होते हैं या अपने ज़हरीले असर के लिए जाने जाते हैं उनकी सिफारिश नहीं की जानी चाहिए। किसान ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए कीटनाशकों के असर को खत्म होने के लिय समय नहीं देते और जल्द ही फसल को बाजार में बेच देते हैं। इस वजह से कीटनाशकों का ज़हर उनमें बाकी रह जाता है, कभी कभी इस वजह से मौत तक हो जाती है। इसलिए सब्जियों में कीटनाशकों का प्रयोग करते हुए हमें ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए। समेकित कीट प्रबंधन (आई. पी. एम.) का उपयोग फलों में 1940 के बाद किया गया. इससे पहले 1800 से 1940 तक कीट प्रबंधन के लिए तेल, साबुन, रेजिंस, पौधों से प्राप्त जहरीले पदार्थ एवं अकार्बनिक योगिकों का उपयोग होता था. 1940 के बाद सिंथेटिक व्यापक कीटनाशकों का प्रयोग होने लगा और इनका बार- बार अनुप्रयोग होने से कीटों में कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधकता विकसित होने लगी. इस प्रकार कीटों मे प्रतिरोधकता होने से ज्यादा कीटनाशकों का अनुप्रयोग होने लगा, जिससे वातावरण खराब होने लगा और कीटों के प्राकृतिक शत्रु नष्ट होने लगे. इन सब घटकों से बचाने के लिय समेकित कीट प्रबंधन (आई. पी. एम.) की कददूवर्गीय सब्जियों में आवश्यकता पडी.
यह कीट प्रबंधन की वह विधी है जिसमें कि सम्बधित पर्यावरण तथा विभिन्न कीट प्रजातियों के जीवन चक्र को संज्ञान में रखते हुए सभी उपयुक्त तकनीकों एवं उपायों का समन्वित उपयोग किया जाता है, ताकि हानिकारक कीटों का स्तर आर्थिक नुकसान के स्तर के नीचे बना रहे.
-- न्यूनतम लागत के साथ-साथ अधिकतम फसल उत्पादन.
-- मिट्टी, पानी व वायु में कीटनाशकों की वजह से न्यूनतम प्रदूषण.
-- पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण एवं पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखना.
इस प्रबंधन के अंदर निम्नलिखित घटक आते है: फल को पेपर या प्लास्टिक से ढकना, खेत की सफाई करना, प्रोटीन बैट और क्यू-आकर्षण ट्रैप, कीट प्रतिरोधक पौधे, जैविक नियंत्रण और कम विषैले कीटनाशकों आदि का उपयोग कीट को नुकसन के आर्थिक स्थर से नीचे रखने के लिये किया जाता है.
पौधे के फलो को 2-3 दिन के अंतराल पर दो परत पैपर या प्लास्टिक से बांधना चाहिय जिससे की फल मक्खी अपने अण्डे फलों पर नहीं दे पाती है. इस प्रबंधन से 40-58% तक फलों को नुकसान होने से बचाया जा सकता है. इस प्रबंधन का उपयोग कददूवर्गीय फसलों जैसे तरबूज, खरबुज, ककडी, लौकी, तोरई, कददू आदि मे किया जाता है.
कीटों के प्रबंधन में सबसे प्रभावी तरीका खेत की सफाई करना होता है. फल मक्खी, चितकबरी सुंडी, लाल कद्दू बीटल, हाडा बीटल आदि के प्रजनन चक्र और जनसंख्या वृद्धि को तोड़ने के लिये गर्मी के दिनो मे खैत की गहरी जुताई करनी चाहिये. पौधों और फलों के क्षतिग्रस्त भागों को हटा देना चाहिए और नष्ट कर देना चाहिए.
क्यू-आकर्षण ट्रैप फल मक्खी के प्रबंधन मे प्रभाशाली है. क्यू-आकर्षण ट्रैप नर को आकर्षित करती है और इसके अंदर कीटनाशक रखा जाता है जिसके द्वारा नर मर जाता है और मादा संमभोग करने के लिये नर नहीं मिलता है. इस प्रकार से इन कीडों का प्रबंधन कर सकते है.
विभिन्न प्रकार के क्यू-लुर: 1) फलाईसीड ® 20%, ऊगेलुर ® 8%, क्यू-लुर 85%+ नैल्ड, क्यू-लुर 85%+ डाय्जिनोन, क्यू-लुर 95%+ नैल्ड आदि बाजार मे उपलब्ध हैं और इनको फल मक्खी को नियंत्रित करने में प्रभावी पाया गया है. 2) खेत में रात के समय प्रकाश के ट्रैप लगायें तथा उनके नीचे किसी बर्तन में चिपकने वाला पदार्थ जैसे सीरा अथवा गुड का घोल भर कर रखे।
कीटों का नियंत्रण जैविक तरीको से करने का तरीका है ओर आईपीएम का सबसे महत्वपूर्ण अवयव है. व्यापक अर्थ में, बायोकंट्रोल का अर्थ है जीवित जीवों का प्रयोग कर फसलों को कीटों से नुकसान होने से बचाना. कुछ बायोकंट्रोल एंजेट्स इस प्रकार हैं.
पैरासिटॉइड्स: ये ऐसे जीव हैं जो अपने अंडे उनके पोषक किटों के शरीर में या उनके ऊपर देते हैं और पोषक कीट के शरीर में ही अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं. परिणामस्वरूप, पोषक कीट की मृत्यु हो जाती है. एक पैरासिटॉइड्स दूसरे प्रकार का हो सकता है, यह पोषक कीट के विकास चक्र पर निर्भर करता है, जिसके आधार पर वह अपना जीवन चक्र पूरा करता है. उदाहरण के लिए, अंडा, लार्वा, प्यूपा, अंडों के लार्वल और लार्वल प्यूपल पैरासिटॉइड्स निम्नलिखित है ट्राइकोगर्मा, अपेंटेलिस, ब्रैकोन, चिलोनस, ब्रैकिमेरिया आदि की विभिन्न प्रजातियां हैं.
प्रीडेटर्स: ये स्वतंत्र रूप से रहने वाले जीव होते हैं जो कि भोजन के लिए दूसरे जीवों पर निर्भर करते हैं. उदाहरण: मकड़ियां, ड्रेगन फ्लाई, मक्खियां, डेमसेल फ्लाई, लेडी बर्ड, भृंग, क्रायसोपा, पक्षी आदि प्रजातियां महत्वपूर्ण है.
कीट प्रतिरोधक पौधे समन्वित कीट प्रबंधन कार्यक्रम में एक महत्वपूर्ण घटक है. यह किसी भी प्रतिकूल पर्यावरण प्रभाव से पैदा नहीं होता है और किसानों को कोई अतिरिक्त लागत भी नहीं आती है. अधिक उपज देने वाले पौधों और कीट प्रतिरोधी किस्मों को उगाना चाहिए.
जब कीड़ों को समाप्त करने के सारे उपाय खत्म हो जाते हैं तो रासायनिक कीटनांशक ही अंतिम उपाय नजर आता है. कीटनाशकों का प्रयोग आवश्यकतानुसार, सावधानी से और आर्थिक नुकसान का स्तर (ईटीएल) के मुताबिक होना चाहिए. इस प्रकार न सिर्फ कीमत में कमी आती है बल्कि अन्य समस्याएं भी कम होती है. जब रासायनिक नियंत्रण की बात आती है तो किसानों को निम्न बातों का ध्यान रखते हुए अच्छी तरह पता होना चाहिए कि किस रासायनिक कीटनांशक का छिड़काव करना है, कितना छिड़काव करना है और कैसे छिड़काव करना है.
- ईटीएल और कीट प्रतिरक्षक अनुपात का ध्यान रखना चाहिए.
- सुरक्षित कीटनाशकों का इस्तेमाल करना चाहिए, उदाहरण के तौर पर नीम आधारित और जैवकीटनाशकों का प्रयोग किया जाना चाहिए.
- अगर कीट कुछ भागों में ही मौजूद हैं तो सारे खेत में छिड़काव नहीं करना चाहिए.
कददूवर्गीय सब्जियों के लिय निम्नलिखित रासायनिक कीटनांशक काम मे लेना चाहिए.

1. तने, पत्ती, फलों एवं फूल भेदकों के लिये रासायनिक कीटनाशी:


2. तने, पत्ती, फलों एवं फूल चूसकों के लिये रासायनिक कीटनाशी
Authors:

बैंगन की उन्‍नत किस्‍में

Improved Varieties of Brinjal
बैंगन की उन्‍नत किस्‍में


Brinjal long (Anamika)Brinjal round (Navkrin)
Varieties प्रजाति Developed By विकसित की Characters गुण
Long Type Brinjal
अनामिका Anamika सनग्रो सीडस इस संकर किस्‍म के फल लम्‍बवत गोल, गुलाबी रंग के होते हैं जो गुच्‍छों में लगते हैं। फल का औसत वजन 40-50 ग्राम होता है व पुष्‍पकोष का रंग हल्‍का बैंगनीपन लिए हरा होता हैं।
ग्रीनलोंग Green Long सनग्रो सीडस इस संकर किस्‍म के फल बेलनाकार लम्‍बे व हरे रंग के होते हैं जो गुच्‍छों में लगते हैं। पुष्‍पकोष कांटे रहीत हरे रंग के होते हैं। रोपण के 60 दिनो बाद पहली तुडाई के लिए तैयार हो जाता हैं।
Pusa Purple Long पूसा पर्पल लोगं IARI It is an early maturing variety. Fruits are glossy,light purple in colour, 25-30 cm long, smooth and tender. Crop is ready for picking in 100 to 110 days. Suitable for spring and autumn plantings, average yield is 27.5 t/ha. Moderately tolerant to shoot borer and little leaf disease.
Pusa Purple Cluster पूसा पर्पल कलस्‍टर IARI Medium early, Fruits borne in clusters of 4-9 & 10-12 cm long. Most suitable for South & NOrthern Hills
PH-4 पीएच 4 PAU & HAU Fruits medium to long, flesh light green
Pant Samrat Pantnagar Plant height 80-120cm. Resistant to phomopsis blight and bacterial wilt. Good for rainy season
K-202-9 के 202-9 Kalianpur Plants height 60-70 cm. Fruits edible maturity 70-75 days after transplant, more self life. Tolerant to fruitrot, wilt and blight. Yield 383 q/ha
Pusa Hybrid-5 पूसा संकर 5 IARI, Takes 80-85 days from sowing to Ist Picking. Av. Yield 516q/ha. Suitable for Northern plains, central India, Non-coastal area of Kerala, TN, Karnataka and AP
ARBH-201 श्‍यामल Ankur Seeds,Nagpur Takes 100-110 days of transplanting to Ist Picking which continues upto 240-270 days.Av. Yield 700-750q/ha. Good for Punjab, Bihar,UP, AP, Eastern MP, orissa, Haryana, Rajasthan, Gujarat & Maharashtra
Arka Kusmukar अर्कासुकुमार IIHR Banglore Spreading plant habit with green stem & green leaves. Flowers white green small fruits borne in cluster. Soft texture with good cooking quality. Crop is ready for picking in 140-150 days. Average yield is 40 t/ha
Arka Nidhi अर्कानिधि IIHR Banglore High yielding variety with resistance to bacterial wilt. Fruits borne in cluster. Calyx purplish green. Fruits free from bitter principles with slow seed maturity and good cooking quality. Crop is ready for picking in 150 days. Average yield is 48 t/ha.
Arka Neelkanth अर्कानीलकंठ IIHR Banglore High yielding variety with bacterial wilt resistance. Fruits tender, free from bitter principles with seed maturity. Crop is ready for picking in 150 days. Average yield is 43 t/ha.
Brinjal Round Type
नवकिरण Navkrin सनग्रो सीडस इस संकर किस्‍म के कम चमकीले बैंगनी गोलाकार व कांटोरहीत हरे पुष्‍पकोष वाले फल होते हैं। फलों का औसत वजन 160 से 250 ग्राम होता है तथा यह रोपाई के बाद 65 दिनों मे पहली तुडाई के लिए तैयार हो जाती है। यह किस्‍म लम्‍बे समय तक अधिक पैदावार देने की क्षमता रखती है।
कन्‍हैया Kanhiya सनग्रो सीडस इस संकर किस्‍म के पौधें पर काले बैंगनी रगं के फल आते हैं जो 200-300 ग्राम भारी होते है। फल चमकदार, समरूप चिकना, अण्‍डाकार व कांटोरहीत हरे पुष्‍पकोष वाले होते हैं। यह रोपाई के बाद 60 दिनों मे पहली तुडाई के लिए तैयार हो जाती है। फल में बीज देर से पकता है। प्रत्‍येक मौसम में विशेषत: शीतकाल में अच्‍छी फसल देती है।
भीमा Kanhiya सनग्रो सीडस इस संकर किस्‍म के पौधें पर आर्कषक चमकीले बैंगनी रगं के फल आते हैं जो 250 ग्राम भारी होते है। फल गोल व कांटोरहीत हरे पुष्‍पकोष वाले होते हैं। यह रोपाई के बाद 60-65 दिनों मे पहली तुडाई के लिए तैयार हो जाती है।
Pant Rituraj पंतऋतूराज Pantnagar Plant height 60-70 cm.Fruits less seeded with good flavour & keeping quality.Av.Yield 403 q/ha. Resistent to bacterial wilt
Pusa Hybrid-6 पूसा संकर 6 IARI, Takes 85-90 days from sowing to Ist Picking.Av. Yield 450 q/ha
Pusa Hybrid-9 पूसा संकर 9 IARI, Takes 90 days from sowing to Ist Picking. Fruit Av. wt 300g. Yield 670 q/ha. Good for Gujarat and Maharashtra
Arka Navneet अर्कानवनीत IIHR Banglore Maturity 120 days from transplanting. Fruit Av. wt 450g. Av. Yield 650-700 q/ha. Fruit oval and free from bitterness, skin deep purple, flesh soft, white with few seeds.
MHB-39 एमएचबी-39 Maharashtra Hybrid Seeds Early bearing, takes 60-65 days from sowing to Ist Picking which continues for 125-130 days. Av. yield 350 q/ha. Redish purple colour
MHB-10 कल्‍पतरू Maharashtra Hybrid Seeds Takes 70-75 days from sowing to Ist Picking. Redish purple with white streaks. Av. Yield 400-450 q/ha
Pusa Karanti पूसा क्रान्ति IARI, Dwarf and spreading growth habit. Fruits are oblong and stocky than slender with attractive dark purple colour. Good for both spring and autumn plantings under North Indian conditions. Crop matures in 130-150 days. Average yield is 14-16 t/ha.
Pusa Ankur पूसा अंकुर IARI, Fruits are oval-round, small-sized (60-80g), bark purple, attractive fruits. Fruits are small, oval-round, bark purple, glossy and very attractive, weighing each 60-80g. It is an early bearing and becomes ready for first picking 45 days after transplanting. Its fruits do not lose color and tenderness even on delayed pickings.
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सब्जियों की पौध तैयार करने की प्‍लास्टिक प्‍लग ट्रे प्रौघोगिकी


इस तकनीक द्वारा सब्जियों की पौध को तैयार करने के लिए प्‍लास्टिक की खानेदार ट्रे (Multi celled plastic tray) का प्रयोग करते हैं ट्रे के खाने शंकू आकार के होने चाहिए क्‍योकि ऐसे खानो में पौधे की जडों का समुचित विकास होता है। टमाटर, बैंगन व समस्‍त बेल वाली सब्जियों के लिए 18-20 घन से.मी. आकार के खानो वाली ट्रे का प्रयोग होता है जबकि शिमला मिर्च, मिर्च, फूलगोभी वर्ग की सभी फसले व सलाद, सेलेरी, पारसले आदि सब्जियों को 8-10 घन से.मी. आकार के खानो वाली ट्रे उपयुक्‍त रहती है।seed sowing in tray इस विधि में पौध को भू:रहित माध्‍यम (soil less media) में उगाया जाता है। यह माध्‍यम कोकोपीट, वर्मीकुलाइट व परलाइट को 3:1:1 के अनुपात (आयतन के आधार पर) में मिलाकर बनाया जाता है। भूरहित माघ्‍यम को पानी मिलाकर गीला करने के बाद ट्रे के खानो मे भरा जाता है तथा बाद में उंगली से हल्‍के गड्ढे बनाकर प्रत्‍येक गड्ढे में एक एक बीज बोया जाता है। बीज बोने के बाद वर्मीकुलाईट की पतली परत से ढक दिया जाता है ताकि बीजों को अंकुरण के समय समुचित नमी मिलती रहे। वर्मीकुलाईट में नमी को अधिक समय तक बनाए रखने की क्षमता होती है।
trays in protected nursary
saplings out of tray
soil less media


सब्जियों के बीजों के अंकुरण के लिए 20 से 25 डिग्री सेन्‍टीग्रेड तापमान उपयुक्‍त होता है। यदि तापमान अंकुरण के अनुकूल है तो ट्रेज को बाहर ही रखा जा सकता है अन्‍यथा यदि तापमान 10-12 डिग्री सेन्‍टीग्रेड से कम है तो बीज बुआई के बाद ट्रेज को अंकुरण कक्ष (जो अस्‍थाई हो सकता है) में रखा जाता है। तथा अकुरण के तुरन्‍त बाद ग्रीनहाउस में बने बैचं या जमीन से उपर उठाकर बनाई गई क्‍यारियों के उपर रखा जाता है। अंकुरण के एक सप्‍ताह बाद सिंचाई जल के साथ आवश्‍यक मात्रा में मुख्‍य तत्‍वों (नत्रजन,फास्‍फोरस व पोटास) और समस्‍त सूक्ष्‍म तत्‍वों को भी दिया जाता है। इसके लिए बाजार में उपलब्‍ध विभिन्‍न अनुपात (20:20:20 या 19:19:19 या 15:15:15) में मिले नत्रजन,फास्‍फोरस व पोटास उर्वरक जिनमें सूक्ष्‍म तत्‍व भी मिले रहते हैं का एक टंकी में स्‍टाक घोल बना लेते हैं तथा उस घोल को गर्मी के मौसम में 70-80ppm (Part per million) तथा सर्दी में 140ppm तक सिचाई जल के साथ मिलाकर ट्रेज में दिया जाता है। इस प्रक्रिया को फर्टीगेशन (Fertigation) कहते हैं। गर्मी में पौध को दिन में कम से कम दो बार पानी देने की आवश्‍यकता पडती है लेकिन फर्टीगेशन एक बार ही किया जाता है। सर्दी में दिन में एक बार ही सिचाई या फर्टीगेशन किया जाता है। इस तकनीक से पौधे 25 से 30 दिन में रोपण के योग्‍य हो जाते हैं।

पौधों को तैयार होने पर ट्रे में बने खानो से बाहर निकाला जाता है। इस समय माघ्‍यम के गुच्‍छे के चारो ओर जडों का सघन फैलाव सफेद धागो जैसा साफ दिखाई देता है। यह पौधे आसानी से खानो से बाहर निकल आते हैं। गर्मी के मौसम में पौध पर रोपाई से पहले दिन किटनाशक का छिडकाव करना लाभदायक होता है। सामान्‍य तापक्रम होने पर रोपाई का कार्य सुबह या दोपहर में किसी भी समय किया जा सकता है परन्‍तू अधिक तापक्रम होने पर रोपाई का कार्य सांयकाल में किया जाना चाहिए। इस पौध उत्‍पादन तकनीक को लघु उधोग के रूप में अपनाया जा सकता है।
इस तकनीक के अनेक लाभ हैं।
1. भुजनित रोगों से मुक्‍ती
2. शतप्रतिशत विषाणुरोग रहित पौध
3. बेमौसमी पौध तैयार करना संभव
4. कम क्षेत्र में अधिक पौध तैयार करना संभव व एक वर्ष में 5-6 बार पौध तैयार की जा सकती हैं
5. पौध को ट्रे सहित दुर स्‍थानो तक ले जाना संभव
6. ऐसी सब्जियां जिनकी परम्‍परागत विधि से पौध तैयार करना संभव नही जैसे बेल वाली सब्जिया ,की भी पौध तैयार की जा सकती है।
7. पौध की बढवार एक समान होती है।
8. पौध तैयार कर बेचने का व्‍यवसाय किया जा सकता है।
9. पौध तैयार करने की अवधि निश्चित है जो लगभग 25 से 30 दिन होती है।
10.यह तकनीक सामान्‍य तथा संकर किस्‍मों के बीज उत्‍पादन में बहुत उपयोगी हो सकती है।
श्रोत: पूसा कृषि विज्ञान मेला, द्वारा संरक्षित कृषि प्रौघोगिकी केन्‍द्र, भाकृअसं, नई दिल्‍ली
http://www.krishisewa.com


बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

पपीते की उत्तम खेती

 
पपीता पोषक तत्वों से भरपूर अत्यंत स्वास्थ्यवर्धक जल्दी तैयार होने वाला फल है । जिसे पके तथा कच्चे रूप में प्रयोग किया जाता है । आर्थिक महत्व ताजे फलों के अतिरिक्त पपेन के कारण भी है । जिसका प्रयोग बहुत से औद्योगिक कामों में होता है । अतः इसकी खेती की लोकप्रियता दिनों - दिन बढती जा रही है और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह हमारे देश का पांचवा लोकप्रिय फल है, देश की अधिकांश भागों में घर की बगिया से लेकर बागों तक इसकी बागवानी का क्षेत्र निरंतर बढ़ता जा रहा है । देश की विभिन्न राज्यों आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, असाम, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, जम्मू - कश्मीर, उत्तरांचल और मिजोरम में इसकी खेती की जा रही है । अतः इसके सफल उत्पादन के लिए वैज्ञानिक पद्धति और तकनीकों का उपयोग करके कृषक स्वयं और राष्ट्र को आर्थिक दृष्टि से लाभान्वित कर सकते हैं । इसके लिए तकनिकी रूप में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए ।
पपीता के लिए हलकी दोमट या दोमट मृदा जिसमें जलनिकास अच्छा हो सर्वश्रेष्ठ है । इसलिए इसके लिए दोमट, हवादार, काली उपजाऊ भूमि का चयन करना चाहिए और इसका अम्ल्तांक 6.5 - 7.5 के बीच होना चाहिए तथा पानी बिलकुल नहीं रुकना चाहिए । मध्य काली और जलोढ़ भूमि इसके लिए भी अच्छी होती है ।
यह मुख्य रूप से उष्ण प्रदेशीय फल है इसके उत्पादन के लिए तापक्रम 22 - 26 डिग्री से०ग्रे० के बीच और 10 डिग्री से०ग्रे० से कम नहीं होना चाहिए क्योंकि अधिक ठंढ तथा पाला इसके शत्रु हैं, जिससे पौधे और फल दोनों ही प्रभावित होती हैं । इसके सकल उत्पादन के लिए तुलनात्मक उच्च तापक्रम, कम आर्द्रता और पर्याप्त नमी की जरुरत है ।
पपीता में नियंत्रित परगन के अभाव और बीज प्रवर्धन के कारण क़िस्में अस्थाई हैं और एक ही क़िस्म में विभिन्नता पाई जाती है। अतः फूल आने से पहले नर और मादा पौधों का अनुमान लगाना कठिन है। इनमें कुछ प्रचलित क़िस्में जो देश के विभिन्न भागों में उगाई जाती हैं और अधिक संख्या में मादा फूलों के पौधे मिलते हैं मुख्य हैं। हनीडियू या मधु बिंदु, कुर्ग हनीडियू, वाशिंगटन, कोय -1, कोय- 2, कोय- 3, फल उत्पादन और पपेय उत्पादन के लिए कोय-5, कोय-6, एम. ऍफ़.-1 और पूसा मेजस्टी मुख्या हैं। उत्तरी भारत में तापक्रम का उतर चढाव अधिक होता है। अतः उभयलिंगी फूल वाली क़िस्में ठीक उत्पादन नहीं दे पति हैं। कोय-1, पंजाब स्वीट, पूसा देलिसियास, पूसा मेजस्टी, पूसा जाइंट, पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा (म्युतेंत) आदि क़िस्में जिनमे मादा फूलों की संख्या अधिक होती है और उभयलिंगी हैं, उत्तरी भारत में काफ़ी सफल हैं। हवाई की 'सोलो' क़िस्म जो उभयलिंगी और मादा पौधे होते है, उत्तरी भारत में इसके फल छोटे और निम्न कोटि के होते हैं।
पपीते के उत्पादन के लिए नर्सरी में पौधों का उगाना बहुत महत्व रखता है। इसेक लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेअर के लिए 500 ग्राम काफ़ी होती है। बीज पूर्ण पका हुआ, अच्छी तरह सूखा हुआ और शीशे की जार या बोतल में रखा हो जिसका मुँह ढका हो और 6 महीने से पुराना न हो, उपयुक्त है। बोने से पहले बीज को 3 ग्राम केप्टान से एक किलो बीज को पुचारित करना चाहिए।
बीज बोने के लिए क्यारी जो जमीन से ऊँची उठी हुई संकरी होनी चाहिए इसके अलावा बड़े गमले या लकडी के बक्सों का भी प्रयोग कर सकते हैं। इन्हें तैयार करने के लिए पत्ती की खाद, बालू, तथा सदी हुई गोबर की खाद को बराबर मात्र में मिलकर मिश्रण तैयार कर लेते हैं। जिस स्थान पर नर्सरी हो उस स्थान की अच्छी जुताई, गुड़ाई, करके समस्त कंकड़-पत्थर और खरपतवार निकाल कर साफ़ कर देना चाहिए तथा ज़मीन को 2 प्रतिशत फोरमिलिन से उपचारित कर लें चाहिए। वह स्थान जहाँ तेज़ धुप तथा अधिक छाया न आये चुनना चाहिए। एक एकड़ के लिए 4059 मीटर ज़मीन में उगाये गए पौधे काफ़ी होतें हैं। इसमें 2.5 x 10 x 0.5 आकर की क्यारी बनाकर उपरोक्त मिश्रण अच्छी तरह मिला दें, और क्यारी को ऊपर से समतल कर दें। इसके बाद मिश्रण की तह लगाकर 1/2' गहराई पर 3' x 6' के फासले पर पंक्ति बनाकर उपचारित बीज बो दे और फिर 1/2' गोबर की खाद के मिश्रण से ढककर लकडी से दबा दें ताकि बीज ऊपर न रह जाये। यदि गमलों या बक्सों का उगाने के लिए प्रयोग करें तो इनमे भी इसी मिश्रण का प्रयोग करें। बोई गयी क्यारियों को सुखी घास या पुआल से ढक दें और सुबह शाम होज द्वारा पानी दें। बोने के लगभग 15-20 दिन भीतर बीज जम जाते हैं। जब इन पौधों में 4-5 पत्तियाँ और ऊँचाई 25 से.मी. हो जाये तो दो महीने बाद खेत में प्रतिरोपण करना चाहिए, प्रतिरोपण से पहले गमलों को धूप में रखना चाहिए, ज्यादा सिंचाई करने से सड़न और उकठा रोग लग जाता है। उत्तरी भारत में नर्सरी में बीज मार्च-अप्रेल, जून-अगस्त में उगाने चाहिए।
इसके लिए 200 गेज और 20 x 15 सेमी आकर की थैलियों की जरुरत होती है । जिनको किसी कील से नीचे और साइड में छेड़ कर देते हैं तथा 1:1:1:1 पत्ती की खाद, रेट, गोबर और मिट्टी का मिश्रण बनाकर थैलियों में भर देते हैं । प्रत्येक थैली में दो या तीन बीज बो देते हैं । उचित ऊँचाई होने पर पौधों को खेत में प्रतिरोपण कर देते हैं । प्रतिरोपण करते समय थाली के नीचे का भाग फाड़ देना चाहिए ।
पौध लगाने से पहले खेत की अच्छी तरह तयारी करके खेत को समतल कर लेना चाहिए ताकि पानी न भर सकें। फिर पपीता के लिए 50 x 50 x 50 से०मी० आकार के गड्ढे 1.5 x 1.5 मीटर के फासले पर खोद लेने चाहिए और प्रत्येक गड्ढे में 30 ग्राम बी.एच.सी. 10 प्रतिशत डस्ट मिलकर उपचारित कर लेना चाहिए। ऊँची बढ़ने वाली क़िस्मों के लिए 1.8 x 1.8 मीटर फासला रखते हैं। पौधे 20-25 से०मी० के फासले पर लगा देते हैं। पौधे लगते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि गड्ढे को ढक देना चाहिए जिससे पानी तने से न लगे।
पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है।इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है। अतः अच्छी फ़सल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फ़ॉस्फ़रस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधा की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधा 20-25 कि०ग्रा० गोबर की सडी खाद, एक कि०ग्रा० बोन मील ओउर एक कि०ग्रा० नीम की खली की जरुरत पड़ती है। खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रेल, जुलाई-अगस्त और अक्तूबर महीनों में देनी चाहिए।
पानी की कमी तथा निराई-गुड़ाई न होने से पपीते के उत्पादन पर बहुत बुरा असर पड़ता है। अतः दक्षिण भारत की जलवायु में जादे में 8-10 दिन तथा गर्मी में 6 दिन के अंतर पर पानी देना चाहिए। उत्तर भारत में अप्रैल से जून तक सप्ताह में दो बार तथा जाड़े में 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पानी तने को छूने न पाए अन्यथा पौधे में गलने की बीमारी लगने का अंदेशा रहेगा इसलिए तने के आस-पास मिट्टी ऊँची रखनी चाहिए। पपीता का बाग़ साफ़ सुथरा रहे इसके लिए प्रत्येक सिंचाई के बाद पेड़ो के चारो तरफ हलकी गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए।
पौधे को पाले से बचाना बहुत आवश्यक है। इसके लिए नवम्बर के अंत में तीन तरफ से फूंस से अच्छी प्रकार ढक दें एवं पूर्व-दक्षिण दिशा में खुला छोड़ दें। बाग़ के चरों तरफ रामाशन से हेज लगा दें जिससे तेज़ गर्म और ठंडी हवा से बचाव हो जाता है। समय-समय पर धुआँ कर देना चाहिए।
उष्ण प्रदेशीय जलवायु में जादे और गर्मी के तापमान में अधिक अंतर नहीं होता है और आर्द्रता भी साल भर रहती है । पपीता साल भर फलता फूलता है । लेकिन उत्तर भारत में यदि खेत में प्रतिरोपण अप्रैल - जुलाई तक किया जाय तो अगली बसंत ऋतू तक पौधे फूलने लगते हैं और मार्च - अप्रैल या बाद में लगे फल दिसम्बर - जनवरी में पकने लगते हैं । यदि फल तोड़ने पर दूध, पानी से तरह निकलने लगता है तब पपीता तोड़ने योग्य हो जाता है । अच्छी देख - रेख करने पर प्रति पौधे से 40 - 50 किलो उपज मिल जाती है ।
प्रमुख रूप से किसी कीड़े से नुकसान नहीं होता है परन्तु वायरस, रोग फैलाने में सहायक होते हैं। इसमें निम्न रोग लगते हैं :-
तने तथा जड़ के गलने से बीमारी
इसमें भूमि के तल के पास तने का उपरी छिलका पीला होकर गलने लगता है और जड़ भी गलने लगती है। पत्तियाँ सुख जाती हैं और पौधा मर जाता है। इसके उपचार के लिए जल निकास में सुधार और ग्रसित पौधों को तुंरत उखाड़कर फेंक देना चाहिए। पौधों पर एक प्रतिशत वोरडोक्स मिश्रण या कोंपर आक्सीक्लोराइड को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करने से काफ़ी रोकथाम होती है।
डेम्पिग ओंफ
इसमें नर्सरी में ही छोटे पौधे नीचे से गलकर मर जाते हैं। इससे बचने के लिए बीज बोने से पहले सेरेसान एग्रोसन जी.एन. से उपचारित करना चाहिए तथा सीड बेड को 2.5 % फार्मेल्डिहाइड घोल से उपचारित करना चाहिए।
मौजेक (पत्तियों का मुड़ना) : इससे प्रभावित पत्तियों का रंग पीला हो जाता है व डंठल छोटा और आकर में सिकुड़ जाता है। इसके लिए 250 मि. ली. मैलाथियान 50 ई०सी० 250 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करना काफ़ी फायदेमंद होता है।

कृषि यंत्रीकरण सह उपादान मेला