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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये


शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

सफलता हमें भी मिली - कमलेष सिंह


जिला - बक्सर
सफलता हमें भी मिली - कमलेष सिंह


                बक्सर जिला अन्तर्गत राजपुर प्रखंड के ग्राम पंचायत तियरा के बघेलवा ग्राम के सीमान्त किसान, कमलेष सिं श्री विधि (धान) की सफलता पूर्वक खेती से खासे उत्साहित है। और आज अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। आज वे क्षेत्र के अन्य किसानों के चर्चा में षामिल है। स्व0 फौजदार सिंह के तीन पुत्रों में मंझले कमलेष सिंह ने सपने में भी नहीं सोचा था कि खेती के वजह से मैं आम से खास व्यक्ति बन जाउंगा, तथा हमारे खेत के निरीक्षण के लिये जिला स्तरीय पदाधिकारी एवं वैज्ञानिकगण आएंगे।

                महज छठी कक्षा तक पढ़ाई करने वाले कमलेष सिंह पिता की मृत्यु के पष्चात खेती को ही अपना मुख्य कार्य मान पारंपरिक खेती करते थे तथा परिवार का भरण-पोशण करते थे। लेकिन उत्पादन बहुत कम होता था जिससे परिवार का भरण पोशण उचित नहीं हो पाता था। इस वर्श इन्हौने श्री विधि से धान की खेती की है और श्री विधि की खेती ने उनके घर इस वर्श धन वर्शा की है। जब उनसे श्री विधि की सफलता का राज जानने पहुंॅचा तो वे खासे उत्साहित दिखे और तपाक से उन्होने अपने उद्गार को साधारण भाशा में व्यक्त करने लगे। आगे कमलेष जी की बात उन्हीं के षब्द में -

                एक दिन हम अपना खेत पर जात रहनी त देखनी कि पेट्रोल पम्प पर किसान लोग के भीड़ जुतल रहे उत्सुकता बस हमहु ओइजा पहुंॅच गइनी। देखनी कि ओइजा मृत्युंजय मिश्र जी जवन हमनी के एसेमेस बानी वाल्टी में धान भेंवले रही आ कुछ बतावत रहीं। हम तवाक से पुछनी कि इ का होतवा त हमके मिसिर जी बतवनी की श्री विधि से धान के खेती के बारें में बतावल जाता। उहांॅके बत्लवनी की श्री विधि में कम बीज (2 कि0ग्रा0) कम खाद कम पानी तथा खर्च भी कम लागी। एह विधि में 8-12 दिन के वीचड़ा लगावेके बा तथा रोपाई 25 बउ ग 25 बउ के समान दुरी पर एक-एक पौधा लगावे के बा। खेत के ओदा-सुखा रखे के बा एहसे पानी भी कम लागी। खेत में घास उगी त ओके कोनोविडर यंत्र चलाके खेते में सड़ावे के बा तथा मिट्टी के भुरभुरी बनावेके बा कम से कम 2-3 बार कोनोविडर चलावे के पड़ी।


                जब हम मिसिर जी के बात सुननी त लागल की इहांॅ के बात में जरूर दम बा पैदा बढ़ी। कहनी कि ए मिसिर जी हमरो खेतवा देख ली हमहु श्री विधि से खेती कइल चाहत बानी। मिससिर जी हमरा के बहुत सहयोग कइनी उहांॅ के जइसे बतावनी हम ओइसही करत गइनी। पहिले जहांॅ 4-5 जो पौधा रोपत रहनी जा तबो 20-25 कल्ला निकलत रहें। श्री विधि में 80-85 जो कल्ला एकहीं पौधा से निकल गइल है। आ फसल बहुत अच्छा भइल है। जब मिसिर जी हमरा खेत पर आवत रही त लोगन के भीड़ जुट जात रहे। हमरा सबसे खुषी भइल जब पटना से फोटु खिचे वालन के लेके मिसिर जी आइल रहनी। जब हमरा के खेत में घुसा के हमरा ओर कमरा कइके जब उलोग हमरा से खेती के बारे में पुछे लागल त खुषी से हमार आंॅख भर गइल। हम बहुत गदगद बानी। पहिले एक एकड़ में मुष्किल से 20-22 क्विंटल धान होत रहे असो श्री विधि से कइनी ह 32-34 क्विंटल धान एक एकड़ में भइल बा। आगे साल से अउरू बढि़या से खेती करब उम्मीद का अउर ज्याद धान बढ़ी। एह खेती में सबसे ज्यादा फायदा इ बा कि खाद कम लागत बा खाली धुरके खाद से हो जात बा आ दवाइयों कम लागत बा। एह से हम त लगइबे करब हमार साथी लोग भी कहता किए कमलेष जी अगिला साल सब आदमी मिल के श्री विधि से धान के खेती कइल जाई। अब हमहुंॅ कह सकीना कि हम है सफल किसान।

सफलता की कहानी - कृशक की जुबानी


जिला - बक्सर
सफलता की कहानी - कृशक की जुबानी

पहले ढ़ैंचा, फिर रोपे धान।
वही है आज का सफल किसान।।
                बिहार सरकार कृशि विभाग के इस उक्ति को आत्मसात कर दिखाया है, बक्सर जिला अन्तर्गत राजपुर प्रखंड के अकबरपुर पंचायत अन्तर्गत बसही ग्राम के किसान श्री विरेन्द्र कुमार सिंह ने / स्व0 लाल बहादुर सिंह जी के तीन पुत्रों में ज्येश्ठ श्री विरेन्द्र सिंह जी ने हाई स्कूल पास करने के पष्चात ही खेती में विषेश रूची लेने लगे और स्वयम् को खेती के लिये ही समर्पित कर दिया। कृशि विभाग द्वारा संचालित लगभग सभी कार्यक्रमों में रूचि रखते हैं तथा प्रत्यक्षण आदि कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। आज इनके सम्पूर्ण परिवार के पोशण का मुख्य साधन कृशि ही है। यह एक सफल किसान है। क्या है इनकी सफलता का राज आइये इन्हीं से पुछते हैं -

                वैसे तो मैं बचपन से ही खेती में रूचि रखता हूंॅ। किन्तु विगत वर्श हमारे गांॅव में किसान पाठषाला का आयोजन कृशि विभाग द्वारा किया गया। जिसमें प्रषिक्षक थे श्री मृत्यूंजय जी। संयोगवष आज वही हमारे पंचायत के विशय वस्तु विषेशज्ञ भी हैं। उन्हौने ही खेती के वैज्ञानिक पहलुओं से प्रथमवार हम किसानों को रूबरू कराया। क्या आने वाली पीढ़ी को प्रदुशण मुक्त और षुद्ध वातावरण मिल सके इसके लिये टिकाऊ खेती महत्व को समझाया। साथ ही मिट्टी की उर्वरता कायम रहे इसके लिये हरी खाद एवं जैविक उत्पाद के खेती में अधिकाधिक प्रयोग के लिये प्रेरित किया। वैज्ञानिक खेती एवं पारंपरिक खेती के अन्तर को सटीक तरीके से समझाया। आधुनिक खेती में ढ़ैंचा का महत्व उसी की एक कड़ी है।


                उन्हीं से प्रेरित होकर एक दिन में फोन किया कि सर ढै़ंचा का बीज कहांॅ मिलेगा। उन्हौने अति उत्साहित लहजे में कहा कि इस वर्श कृशि विभाग निःषुल्क ढ़ैंचा बीज मुहैया करा रही है आप प्रखंड मुख्यालय, राजपुर आकर बीज ले जाइये। मृत्यंजय जी के निर्देषन में मैने लगभग 10 (दस) एकड़ क्षेत्र में ढ़ैंचा का बीज लगाया। जिस प्लाॅट में मैने ढ़ैंचा का प्रयोग किया था उसमें उत्पादन काफी अच्छा रहा है।


                ढ़ैंचा के प्रयोग में जो मुझे स्पश्ट महत्व समझ आया, वह यह यह है कि जिस खेत में ढ़ैंचा या जैविक उत्पाद का प्रयोग कर खेती किया हूंॅ, उस पौधे पर रोग एवं व्याधियों का प्रभाव भी कम रहा तथा मृदा की जलधारण क्षमता में भी कमी आयी। इस बार उर्वरक के रूप में रासायनिक खादों का प्रयोग पहले की तुलना में आधा किया हूंॅ। हांॅ कृशि विभाग के बही सहयोग से वर्मी कम्पोस्ट यूनिट लगाया हूंॅ जिसका प्रयोग इस वर्श खेती में किया हूंॅ।

                अतः हरी खाद के रूप में ढ़ैंचा का प्रयोग हम किसानों के लिये रामबाण है। इसके प्रयोग से सिंचाई जल, रासायनिक उर्वरक, रासायनिक दवाओं पर खर्च से मुक्ति मिल जाती है तथा उत्पादन पहले जहांॅ 40-45 क्विींटल प्रति हेक्टेयर होता था आज धान का उत्पादन 85-95 क्ंिवींटल हो रहा है। अगले वर्श से सभी खेत में ढ़ैंचा का बीज लगाने का मन बना लिया हूंॅ। वाकई ढ़ैंचा हम किसानों के लिए वरदान है। अब मैं भी फक्र से कहता हूंॅ - ‘‘जो पहले बोये ढ़ैंचा फिर लगाये धान वही है सफल किसान।’’


फसल जाँच कटनी प्रयोग - माननीय जिला पदाधिकारी के नेतृत्व में







सोमवार, 7 नवंबर 2011

FARM INNOVATION

 कुछ ऐसे किसान जो  अपनी लगन और प्रगतिशील सोच से कृषक समाजमें मिशाल बने
टमाटर और सूरजमुखी का अंतर फसल -
श्री महेन्द्रू साहू
Village- Amagawa, Post- Peri, P.S- Simariya,
District- Chatra, State- Jharkhand

जैसा हम जानते है, टमाटर में ज्यादा फल लगने से उसकी शाखाए उसे सहारा नहीं दे पाती है और इससे यह शाखाए टूटने लग जाती है. अगर बाहर से कोई सहारा नहीं दिया जाये तो लगभग ४०% फसल इसी तरह खराब हो जाता है. आम तौर पे लकरी या बांस के टुकरो का इस्तेमाल सहारा देने के लिए किया जाता है. झारखण्ड के श्री महेन्द्रू साहू ने एक अभिनव तरीका निकला है जिसमे वोह सूरजमुखी के पौधो को सहारा देने के लिए इस्तेमाल करते है. इस प्रक्रिया में सूरजमुखी का बीज, टमाटर स्थानांतरित होने के 20 दिन बाद जमीन में रोपा जाता है. टमाटर लगभग 55-60 दिनों में फल देना सुरु करता है और उस समय तक सूरज मुखी का पौधा उसे सहारा देने ले लायक हो जाता है. इस तरह से फसल लगाने से टमाटर के साथ साथ सूरजमुखी से भी उपरी आमदनी हो जाता है.

कीटरोधी चिपचिपा घड़ा
श्री लक्ष्मीधर मोहन्ता 
Village- Basudevpur, Block- Sadar
District - Keonjhar, State- Orissa.
 
श्री मोहन्ता काफी छोटे किसान है और अपनी खेतिहर जमीन  पर पिछले 30 सालो से धान , और सब्जियों की खेती करते हैं. इनका आविष्कार काफी उपयोगी और सर्वसुलभ है इन्होने एक चिपचिपे घड़े की खोज की है जो स्थानीय रूप से आसानी से बनाया जा सकता है इसके लिए इन्होने एक घड़ा लिया और उसके बाहरी सतह को पीले चमकीले रंग से रंग दिया इसके बाद घड़े की बाहरी सतह पर  महुआ का तेल (Madhuca Indica) लगा दिया जो काफी चिपचिपा होता है. प्रति हेक्टेयर ऐसे ही 20 घड़ो की आवश्यकता पड़ती है जिसे लकड़ी की चड्डी की सहायता से खेत में लगा दिया जाता है. फलस्वरूप कीड़े इस घड़े की और आकर्षित होते है और महुए के तेल की वजह से उसमे चिपक जाते है. यह विधि काफी सस्ती और टिकाऊ है जिसकी मदद से कई वाइरस जनित रोगों जिनका प्रसार  कीड़े-मकोड़ों के जरिये होता है जैसे  little leaf in brinjal, leaf curl in tomato, YVMV in okra and mosaic in cucurbits पर नियंत्रण पाया जा सकता है. दूसरे हाथ  ये बाजार में उपलब्ध ऐसे ही महंगी traps का सस्ता विकल्प भी है 
 रिले क्रोपिंग 
श्री रुशिकेश गिरी.
  District- Bhadrak , State - orissa
एक तरफ सब्जियो के बढ़ते  दाम से हम सब परेशान है, और दूसरी  तरफ किसान की आमदनी बढ़ नहीं रही है. ऐसे परिस्थिति में यह आविष्कार काफी महत्व रखता है.
अंतर फसल का उत्पादन किसानो के लिए हमेशा लाभदायक रहा है. लेकिन सब्जी उत्पादन में इस तकनीक का कुछ खास योगदान अविष्कार करने में सफल हुए भद्रक, ओरिसा के श्री रुशिकेश गिरी. अक्टूबर से लेकर मई महीने के बिच उन्होंने लगातार एक के बाद एक कम अवधी के फसलों कुछ ऐसे लगाया - एक फसल एक जब फल देना शुरू करता है तो दूसरे फसल को रोप दिया गया. इससे जबतक पहला फसल का जीवनकाल खतम हो रहा है, तबतक दूसरा फसल फल देने लगता है. इसे “रिले” तरीका कहा जा सकता है औ इस तरीके में 3 से 7 फसलों को मात्र 8 महीने के अवधी में लगाया जा सकता है.
खेती के इस तरीके से किसान को ज्यादा आमदनी होती है. छोटे किसान इससे अपनी छोटी सी जमीन का बेहतर इस्तेमाल कर सकते है. इतना ही नहीं इससे जमीन, पानी, खाद, कितनासक सभी का बेहतर इस्तेमाल होता है. कई बार एक फसल दूसरे फसलों के बचाव के काम में भी आ जाता है. जैसे की अदरख  दुसरे फसलों को  कई बीमारियो से बचाता है.
 

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

गेहूं की पैरा क्रोपिंग....एक नजर


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गेहूं की सघनिकरण पद्धति ( System of wheat intensification )


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कृषि यंत्रीकरण मेला 21-22 अक्टूबर







SRI Inspection.... Officers in Field









मंगलवार, 10 मई 2011

खेती के लिए महत्वपूर्ण है हरी खाद

खेती के लिए महत्वपूर्ण है हरी खाद.
हरी खाद भूमि में जैविक तत्वों कि मात्रा बढ़ाकर संरचना में सुधार करती है जिससे भूमि की जल धारण क्षमता में  सुधार  होता है।
  •  भूमि की क्षारीय और लवणीय स्थिति में सुधार होता है। 
  • भूमि में पोषक तत्वों जैसे नत्रजन, फास्फोरस, कैल्सियम, पोटेशियम आदि तत्वों की अधिक मात्रा व सुलभता में वृद्धि होने के साथ-साथ मृदा में उपलब्ध सूक्ष्म तत्वों को अधिक सुलभ बनाती है। 
  • खरपतवारों की वृद्धि को रोककर खरपतवारों की रोकथाम करती है। 
  • मिट्टी की जुताई और उस पर होने वाली खेती में सुधार करती है। 
  • मृदा में जैविक गतिविधियां बढ़ाती है। 
  • हरी खाद के प्रयोग से मृदा में नत्रजन एवं कार्बनिक पदार्थो की वृद्धि करती है। 
  • मृदा कटाव अवरुद्ध करती है। परिणाम स्वरुप ऊपरी उपजाऊ सतह संरक्षित रहती है।
हरी खाद की फसलें इनमें मुख्यत ढैंचा, सनई आदि फलीदार पौधे नत्रजन की आपूर्ति दलहनी पौधों की भांति तो नहीं करते परन्तु मृदा में काफी मात्रा में जीवांस पदार्थ मिलाते हैं जैसे ज्वार, सूरज मुखी, जौ इत्यादि।
 हरी खाद की फसलों की विशेषताएं
 
  • फसल के वानस्पतिक भाग जैसे तना, पत्तियां, व शाखा आदि का अधिक होना। 
  • पौधे के तने कोमल और रसदार होने चाहिए। 
  • पौधों की जड़ों में पर्याप्त राइजोबियम ग्रंथिया बनना चाहिए। 
  • फसल की जड़ें जल्दी बढ़ने वाली एवं गहरी होनी चाहिए। 
  • पौधे कम जल की स्थिति में भी उगने वाले होने चाहिए। 
  • पौधों कम उर्वर मृदा में भी उपज और वृद्धि करने वाले होने चाहिए। 
  • फसल कीट व रोग अवरोधी होनी चाहिए। 
  • वह भूमि को ज्यादा मात्रा में ह्यूमस और पादक पोषक तत्व प्रदान कर सके। 
  • फसल का बीज सस्ता और आसानी से उपलब्ध होना चाहिए। 
  • इसका फसल चक्र में उचित स्थान होना चाहिए।
स्व स्थाने विधि 
इस विधि में हरी खाद वाली फसल उसी खेत में पैदा की जाती है तथा जुताई कर उसी खेत कि मिट्टी में दबा दी जाती है। इस तरह की फसलें अकेले तथा दूसरी मुख्य फसल के साथ मिश्रित रूप में बोई जाती है । यह विधि खास तौर पर सामान्य एवं अधक वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए अधिक उपयुक्त है।
हरी पत्ती की खाद इस विधि में झड़ियों के पत्ते तथा टहनियां लाकर खेत में दबाई जाती हैं वे कोमल भाग जमीन में थोड़ी सी नमी होने पर सड़ जाते हैं। इस प्रकार की हरी खाद बनाने के लिए सेस्बनिया, करंज तथा ग्लायारी सीडिया आदि का प्रयोग किया जाता है।

कृमि खाद

अपशिष्ट या कूड़ा-करकट का मतलब है इधर-उधर बिखरे हुए संसाधन। बड़ी संख्या में कार्बनिक पदार्थ कृषि गतिविधियों, डेयरी फार्म और पशुओं से प्राप्त होते हैं जिसे घर के बाहर एक कोने में जमा किया जाता है। जहाँ वह सड़-गल कर दुर्गंध फैलाता है। इस महत्वपूर्ण संसाधन को मूल्य आधारित तैयार माल के रूप में अर्थात् खाद के रूप में परिवर्तित कर उपयोग में लाया जा सकता है। कार्बनिक अपशिष्ट का खाद के रूप में परिवर्तन का मुख्य उद्देश्य केवल ठोस अपशिष्ट का निपटान करना ही नहीं अपितु एक उत्तम कोटि का खाद भी तैयार करना है जो   हमारे खेत को उचित पोषक तत्व प्रदान करें।
कृमि खाद में स्थानीय प्रकार के केंचुओं का प्रयोग किया जाता है
दुनियाभर में केंचुओं की लगभग 2500 प्रजातियों की पहचान की गई है जिसमें से केंचुओं की पाँच सौ से अधिक प्रजाति भारत में पाई जाती है। विभिन्न प्रकार की मिट्टी में भिन्न-भिन्न प्रकार के केंचुए पाए जाते हैं। इसलिए स्थानीय मिट्टी में केंचुओं की स्थानीय प्रजाति का चयन कृमि खाद के लिए अत्यंत उपयोगी कदम है। किसी अन्य स्थानों से केंचुआ लाये जाने की जरूरत नहीं है। भारत में सामान्यतौर पर जिन स्थानीय प्रजाति के केंचुओं का उपयोग किया जाता है उनके नाम पेरियोनिक्स एक्सकैवेटस एवं लैम्पिटो मौरिटी है। इन केंचुओं को पाला जा सकता है या फिर इसे गड्ढों, टोकरी, तालाबों, कंक्रीट के बने नाद घर या किसी कंटेनर में सामान्य पद्धति से कृमि खाद बनाने में उपयोग में लाया जा सकता है।
स्थानीय केंचुओं को संग्रहित करने की विधि -
  1. मिट्टी की सतह पर दिखाई पड़ने वाले कृमि के आधार पर केंचुआ युक्त मिट्टी की पहचान करना
  2. 500 ग्राम गुड़ एवं 500 ग्राम ताजे पशु गोबर को दो लीटर पानी में घोलें तथा 1 मीटर X 1 मीटर के क्षेत्र पर उसका छिड़काव करें
  3. भूसे या धान की पुआल या पुराने थैले से उसे ढ़क दें
  4. 20 से 30 दिनों तक उसपर पानी का छिड़काव करें
  5. पश्च प्रजनन और प्राचीन स्थानीय कृमियों का समूह उस स्थान पर एकत्रित हो जाता है जिसे जमा कर उपयोग में लाया जा सकता है
कृमि खाद गड्ढे का निर्माण
कृमि खाद गड्ढे को किसी भी सुविधाजनक स्थान या घर के पिछवाड़े या खेत में निर्मित किया जा सकता है। यह किसी भी आकार का ईंट से निर्मित और उचित जल निकासी युक्त, एक गड्ढे वाला या दो गड्ढे वाला या टैंक हो सकता है। 2 मीटर X 1 मीटर X 0.75 मीटर के आकार वाले कक्ष या गड्ढे की आसानी से देखभाल की जा सकती है। जैव पदार्थ और कृषि अपशिष्ट की मात्रा के आधार पर गड्ढों और चैम्बर्स के आकार को निर्धारित किया जा सकता है। कृमि को चीटियों के हमले से बचाने के लिए कृमि गड्ढे की पैरापेट दीवार के केन्द्र में जल-खाना का होना जरूरी है।
चार कक्ष वाला टैंक/गड्ढा पद्धति
कृमि खाद गड्ढे निर्माण की चार कक्ष वाली पद्धति, केंचुओं को पूर्ण गोबर युक्त पदार्थ वाले एक कक्ष से पूर्व प्रसंस्कृत अपशिष्ट वाले दूसरे चैम्बर में आसानी से आवाजाही की सुविधा प्रदान करता है।

कृमि सतह का निर्माण
  • लगभग 15 से 20 सेंमी मोटी कृमि सतह बेहतर, आर्द्र व नरम मिट्टी युक्त वास्तविक सतह होता है जो निचले स्तर पर स्थित होता है। यह ईंट के चूर्ण और बालू के 5 सेंमी वाले पतले सतह के ऊपर स्थित होता है।
  • केंचुआ को गीली मिट्टी में रखा जाता जहाँ वह अपने आवास के रूप में रहता है। 15 से 20 सेंमी वाले मोटे कृमि बेड के साथ 2 सेंमी X 1 सेंमी X 0.75 सेंमी आकार के खाद गड्ढे में 150 केंचुओं को रखा जाता है।
  • कृमि बेड के ऊपर यादृच्छिक रूप में ताजे गोबर का लेप लगाया जाता है। खाद के गड्ढे को सूखी हुई पत्तियों विशेषकर बड़े पत्ते, पुआल या कृषि जैव/अपशिष्ट पदार्थों से 5 सेंमी की ऊँचाई तक ढक दिया जाता है। अगले तीस दिनों तक गड्ढे को नम रखने के लिए उसपर नियमित रूप से पानी का छिड़काव किया जाता है।
  • बेड न तो सूखी होनी चाहिए न ही नम। गड्ढे को नारियल या खजूर के पत्तों या पुराने जूट की बोड़ी से ढका जाना चाहिए ताकि पक्षियों से उनकी रक्षा की जा सके।
  • प्लास्टिक शीट को बेड पर न बिछाया जाए क्योंकि वे गर्मी ग्रहण करते हैं। पहले 30 दिनों के बाद पशुओं का गीला गोबर या रसोई, होटेल या होस्टल से निकला कचरा, राख या या कृषि अपशिष्ट को लगभग 5 सेंमी की मोटाई तक छीटें। इसे हफ्ते में दो बार दोहराया जाए।
  • सभी कार्बनिक अपशिष्ट को कुदाली की सहायता से समय-समय पर ऊपर-नीचे किया जाए या मिलाया जाए।
  • गड्ढे में उचित मात्रा में आर्द्रता बनाए रखने के लिए नियमित रूप से जल का छिड़काव किया जाए। यदि मौसम बहुत अधिक शुष्क हो तो बार-बार पानी देकर गीला बनाए रखना चाहिए। 
खाद के तैयार होने का समय
  1. जब सामग्री पूरी तरह से मुलायम या चूर्ण बन जाती है और खाद का रंग भूरा हो जाता है तब खाद बनकर तैयार हो जाता है। यह काले रंग का दानेदार, हल्का वज़नी और उर्वरा शक्ति से युक्त होता है।
  2. गड्ढे के आकार के आधार पर बेड के ऊपरी सिरे पर निर्धारित मात्रा में कृमि की उपस्थिति में 60 से 90 दिनों के भीतर कृमि खाद तैयार हो जाना चाहिए। इसके बाद कृमि खाद को गड्ढे से निकालकर उपयोग में लाया जा सकता है।
  3. खाद से कृमियों को अलग करने के लिए नियत समय से दो या तीन दिन पहले पानी का छिड़काव बंद कर दें, उसके बाद बेड को खाली करें। ऐसा करने से 80 प्रतिशत तक कृमि बेड के निचली सतह पर जा बैठेते हैं।
  4. कृमियों को चलनी का उपयोग कर अलग किया जा सकता है। केंचुए और गाढ़े पदार्थ जो चलनी के ऊपरी भाग में बने रहते हैं वे फिर बिन में वापस जाते और प्रक्रिया फिर से शुरू हो जाती है। खाद की गंध सोंधी होगी। यदि खाद से गंदी बदबू आ रही हो तो इसका मतलब है कि खमीर की प्रक्रिया उसके अंतिम चरण तक नहीं पहुँची है और जीवाणु संबंधित प्रक्रिया अभी भी जारी है। मटमैली बदबू आने का मतलब है कि खमीर की उपस्थिति या अत्यधिक गर्मी के कारण नाईट्रोजन की कमी हो जाती है। ऐसी स्थिति में खाद के ढेर को हवादार बनाए रखने या उसमें फिर से सूखी या कड़ी/ रेशेदार सामग्री मिलाने की प्रक्रिया प्रारंभ करें और ढेर को सूखा बनाए रखें। बोरी में बंद करने से पहले खाद के ढेले को फोड़कर छोटा-छोटा बना लें।
  5. संचित सामग्री को धूप में ढ़ेर के रूप में रखें ताकि अधिकाँश कृमि ढ़ेर के निचले ठंडे आधार पर चले जाएँ।
  6. दो या चार गड्ढे वाले पद्धति में, प्रथम चैम्बर में पानी डालना बंद कर दें ताकि कृमि स्वयं दूसरे चैम्बर में चले जाएँ। जहाँ कृमि के लिए अनुकूल वातावरण चक्रीय तरीके से बनाई रखी जाती है और चक्रीय आधार पर लगातार केचुएँ भी प्राप्त की जा सकेगी। 
कृमि खाद के लाभ
  • केंचुओं द्वारा कार्बनिक अपशिष्ट को शीघ्रता से तोड़कर टुकड़ों में विभाजित किया जा सकता है जो एक बेहतर संरचना में गैर विषैली पदार्थ के रूप में बदल जाता है। उसका उच्च आर्थिक मूल्य होता है, साथ ही, वह पौधों की वृद्धि में मृदा शीतक (स्वायल कंडिशनर) का कार्य भी करता है।
  • कृमि खाद भूमि को उपयुक्त खनिज संतुलन प्रदान करता है तथा उसकी ऊर्वरा शक्ति में सुधार करता।
  • कृमि खाद बड़े पैमाने पर रोगमूलक सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या को कम करता है और इस नजरिए से यह कूड़ा-करकट से अलग नहीं है।
  • कृमि खाद अपने निष्पादन के दौरान पर्यावरणात्मक समस्याओं को भी कम करता है।
  • ऐसा माना जाता है कि कृमि खाद समाज के गरीब और पिछड़े समुदाय के लिए कुटीर उद्योग का कार्य कर सकता है जो उन्हें दोहरा लाभ दिला सकता।
  • यदि प्रत्येक गाँव के बेरोजगार युवक/महिला समूहों की सहकारी समिति बनाकर कृमि खाद का उत्पादन कर प्रस्तावित दर पर ग्रामीणों के बीच बिक्री की जाए तो यह एक समझदारीभरा संयुक्त उद्यम का रूप ले सकता है। इससे युवा वर्ग न केवल धन अर्जित कर सकेंगे अपितु सुस्थिर कृषि पद्धतियों के लिए उत्कृष्ट गुणपरक कार्बनिक खाद प्रदान कर समाज की मदद भी कर सकेंगे।